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टाळो मनना दोष; दर्शनज्ञानने चरणनी, शुद्धि प्रगटे पोष, ॥४॥
( हम मगन भये प्रभु ध्यानमां. ए राग. ) प्रनु महावीर जिनवर ध्याइए, ध्याश्ए ध्याइए ध्याइए, प्रभु०। कायोत्सर्ग करो गुण हेते, यावश्यकदिल धारिये; देहादिकजमवस्तुथी न्यारो, आतम शुद्ध विचारिये. प्रजु० ॥१॥ देहछतां नहि देहनी ममता, धर्मे तनु व्यापारीए; शुद्धातम उपयोगे रहीने, परमानंदा म्हालीए. प्रभु० ॥२॥ दर्शन ज्ञान चरणनी शुद्धि, काउसग्गयोगे कीजीए; देहादिकमोहसागर उपर, झाने तरंतां रीझीए. प्रभु० ॥ ३॥ काउसग्गयोगे क्षणमां केवल, मुक्ति अनंता पामिया; शुभअशुभपरिणाम त्यजीने, शुद्धस्वरूपे जामिया. प्रभु० ॥४॥ शुद्धातम उपयोगे रहेतां, सर्व प्रभुने ध्याइया; निश्चयनयथी एकातममा, सर्व जिनेश्वर आविया. प्रभु० ॥ ५॥ व्यवहारथी विधि काउसग्ग करवो, एम सापेक्ष विचारीये, आतमशुद्धिहेते साधन, हठकदाग्रह वारिये. प्रभु ॥ ६॥ द्रव्यभाव व्यवहारने निश्चय, नयसापेक्षे जाणीए; सांज सवारे आवश्यकने, रहेणीमांही
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