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प्रभु०१
प्रभु० २
निन्दात्याग ए प्रभुपूजा, निन्दावृत्ति हरीजीए; गुणरागो थै परगुण देखो, मनमांही बहु रीझीए. अन्यमां दुर्गुण व्यसनो देखो, मन अचरिज न धरीजीए; परमां दोषो छतां गुण एकने, देखी अचरिजे रीझीए. श्वानदंतने कृष्ण वखाणे, समकितीदृष्टांत लीजीए; मिथ्यात्वी अगुणने ग्रहशे, नाम देइ न निन्दीजीए. काकसरिखी दृष्टि न धरीए, सज्जनरीते रहीजीए; निन्दक चोथो चंडाल जाणी, परनिन्दा नहीं कीजीए. सद्गुण सद्वर्तनथी मुक्ति, दोषे न मुक्ति वरीजोए; निजमा रह्या दोषकर्मने निन्दी, प्रभुवचनामृत पीजीए.
प्रनु०३
प्र०४
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