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(विमलाचलना वासी म्हाराव्हाला सेवकने विसारी
नहीं विसारो नहीं. ए राग.) गृहावासी प्रभुमहावीर जिणंद, धन्य त्हारी दशा त्हारी दशा, प्रभु भोगी छतां नहीं भोगी-, विरक्त दिलमांहि वस्या-, मांहि वस्या.॥ अनंतपुण्य विपाके शाता-, लोग अने उपभोग; जोगवतां तृप्ति नहिं क्यारे, भोगादिक गण्यो रोग, जिणंदधन्य० १ पूर्व निकाचितकर्मना प्रेर्या-, परानुरोधे प्रवृत्ति; कामनोगमां करे तथापि, वैरागी, नहीं आसक्ति. जिणंदधन्य पांचे इन्द्रियकामभोगमां-, तृप्ति न मानो लेश; सर्व विरति धरी यातमसुखनी,चाहना धारी बेश. जिणंदधन्य० ३ इन्द्रादिक पण कोटि उपाये--, जोगे तृप्ति न पाय;
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