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(३२) जो, संस्कारी भव्योने जक्ति सांपडे, गुण रागे सवळी बुद्धि प्रगटाय जो, प्रीतलडी० ॥ ३ ॥ यम नियमने आसन प्राणायामथी, प्रत्याहारने धारणा ध्यानथी जहजो, आत्म समाधि योगे घटमां वर्तता, निष्कामीने सम ने वनने गेहजो, प्रीतलडी० ॥ ४ ॥धीरे धीरे मनने साधे साधुजी, सद्गुण साधे करता दुर्गुण त्यागजो, आसक्ति वण आचारोमा वर्तता, मुनिपर धारो स्वार्पण करीने रागजो, प्रीतलडी० ॥४॥ श्रात्मशुद्धि हेते सापेक्षे साधना, गौणने मुख्यपणे जाणे जे योगजो, उत्समेंने जे अपवादे वर्तता, निर्लेपी थै भोगवे सुख दुःख भोगजो, प्रीतलमी० ॥६॥
आपत्काले आप धर्मे वर्तता, बाह्य संगमांजे दिलमा निःसंगजो, ध्येयपणे निज दिलमां प्रभु प्रगटावता, प्रगटे मुनिनी संगे बातम रंगजो; प्रीतलडी० ॥ ७ ॥ अंतर बाह्यनी ग्रन्थिमां ममता नहीं, गुरु आज्ञाए सर्वे कर्ता कर्मजो. निर्भय खेदरहित अद्वेषी साधुजी, समताभावे अनुभवे शिव
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