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( १२ )
पुत्र जगतीर्थकर, को नहि तेना तोले; प्रतिबिंब मातानी पासे, मूकी प्रभु कर लीधा; पंचरूप इंद्रे निज कीधां, जावे कारज सिध्यां ॥ ६ ॥ मेरु उपर पांशुक वनमां, शिला सिंहासन ठावे; सौधर्मेंद्रे खोळा मांहि, प्रभु धर्याशुन जावे; चोसठ इन्द्रो, जाव धरीने, आव्या त्यां उल्लासे; निज निज शक्ति ऋद्धि जावे, इंद्रो पूर्ण विकासे ॥ ७ ॥ अच्युतेंद्रे औषधि तीर्थनी, माटी जल मंगाव्यां; आठ जातिना कलश भरीने, इंद्रो ए न्हवराव्या; फूल चंगेरी थाळ रकेबी, उपकरणो बहु जाति; प्रभुनी भक्ति करतां विध विध, निर्मल करता छाति ॥ ८ ॥ भुवनपति ने व्यंतर ज्योतिष, वैमानिक बहु देवा, अच्युतपतिनी आज्ञा पामी, करता बहुविध सेवा; एक कोम ने साठ लाख सहु, कलशानो निषेक; अढीसे अनिषेक सहु मळी, सुर नहि चूके विवेक ॥ ९ ॥ (थोडो जळ अनिषेक करवो) इशान इन्द्रे करमांलीधा, प्रभुनी भक्ति कोधी; सौधर्मेन्द्र पंचरूप करी, भक्ति करी प्रसिद्धि; (संपूर्ण
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