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(३१३) पशो नरने नारी; बुद्धिसागर शुद्धातम रस,-स्वाद लह्यो तपधारी. महावीर ॥ ४ ॥
कलश.
__ गाइ गारे नवपदनी पूजा गा०॥ ओगणिश अव्योत्तर आश्विन बीज, मेसाणामां रचाइरे, नवपदनी पूजा गाइ ॥ वीर प्रभुनी पट्ट परंपर, श्वेतांबर सुखदायी; तपगच्छ हीरविजय सूरि जगगुरु, पट्ट परंपरा आइरे. नव०॥ १॥ नेमिसागर रविसागर गुरु, सुखसागर गुरु ध्यायी; नवपद पूजा रचतां ऋद्धि, वृद्धि कीर्ति सुहाइरे. नव० ॥२॥ घट घट नवपद ऋद्धि सिद्धि, सत्ताए रही छे सुहाइ; बुद्धिसागर पुर्णानन्दनी, प्रगटो घटमां वधाइरे. नव०॥३॥
ॐ प० तपः पदपूजार्थ जलं० य० स्वाहा ॥
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