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( १६७ ) समभावे प्रभु सेवतांजी, नासे कर्म कुटेव.
समता
महावीर जिनेश्वर, धन्य धन्य तुम उपदेश, ॥ १ ॥ जडचेतनमय विश्वमांजी, समभावे उपयोग; विषमपणुं प्रगटे नहींजो, आनंद जोग. महावीर० ॥ २ ॥ खंधक शिष्यो पांचशेजी, प्राणांते समभाव, मोहने मार्यो छेवटेजी, धन्य से समता दाव. महावीर० ॥ ३ ॥ मुनि मेतायें समपर्णुजी, धायें छंडयो देह, शुभाशुन बुद्धि विनाजी, पाम्यां मुक्तिगेह. महावीर० ॥ ॥ ४ ॥ समता भावने यदयजी, गज सुकुमाल मुनीश, देहनी ममता परिहरीजी, सोमिलपर नहि रीस. महावीर० ॥ ५ ॥ अन्य तीर्थियो पण लहेजी, समता जावेरे मुक्ति, समता ते पाम्या पछीजी, नहीं तप किरिया रीति. महावीर० ॥ ६ ॥ दर्शन ज्ञान चरण सकलजी, समतामांही सुहाय, समता प्रगटे सिद्धताजी, अक पलकमां थाय. महावीर० ॥ ७ ॥ काने खोला मारि
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