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( १०३ )
जगमां० || ६ || आतमरागी प्रेमी ज्ञानी, भक्त संत मुनिराया; शुद्ध ब्रह्ममां निशदिन रमता, प्रणमो तेना पाया हो. जगमां० ॥ ७ ॥ बिराकार शुद्धातम ब्रह्ममां, रमवुं ब्रह्म डे जावे, पूर्णानंदनी मोझे रमतां, पोते प्रभुजी सुहावे हो. जगमा० ॥ ८ ॥ ब्रह्मरसे रसिया मुनिवरजी, बाह्यरसे दूर खसिया; एकवार आतम यानंदरस, पाम्या ब्रह्म उल्लसिया हो. जगमां० ॥ ९ ॥ ब्रह्मचर्यथी शक्ति अनंती, नासे दूरे रोगो, ब्रह्मचर्य छे सर्वनुं जीवन, एथी सबळा योगो हो. जगमां० ॥ ११ ॥ द्रव्यथी भाव अनंत गुण उत्तम, कारणे कार्यनी सिद्धि, अष्ट सिद्धि नवनिधियो प्रगटे, आत्मिक क्षायिक लब्धि हो जगमां० ॥ ११॥ इन्द्रादिक सहु देवो पूजे, ब्रह्मचारीने रागे; मुनिवर सेवा भक्ति करतां, ब्रह्मव्रत दिल जागे हो. जगमां० ॥ १२ ॥ जाव ब्रह्मधारी उपकारी, भोगी जेह अजोगो; बुद्धिसागर ब्रह्म अलखने, पूर्ण जगावे योगी हो. जगमां० ॥ १३ ॥ ॐ० ही ० - ब्रह्मचर्य लाभाय जलादिकं यजामहे स्वाहा.
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