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पदसंग्रह प्रस्तावन.
संसाराग्निमें कथित पुरुषोंको सुख कैसे मिले, इस उपायम बहुत मनुष्य तो यह समजते हैं कि, द्रव्योपार्जन करना, बहुत कुटुम्ब भेगा करना, राज्य में अधिकार प्राप्त करना, लक्षों मनुष्योंसे पुजवाना इत्यादि परम सुखका साधन है. इसी वास्ते धर्म कर्म नित्य नैमित्तिक अनुष्ठान कुल मर्यादा आदिभी शिथिल करके पुर्वोक्त उपायमें लगते है. परंतु ये सब उपाय तो दुःखके है. उ. नसें परम मुख प्राप्ति की नहि होती. जो धनमें सुख मिलता, तो चक्रवर्ती राज्यको ठोकरमें ठुकराकर एकान्त सेवन क्यों करते.
न सुखं देवराजस्य, न सुखं चक्रवर्तिनः यत सुखं वीतरागस्य, मुने रकान्त वासिनः
जो सुख एकान्तवासी मुनिको है, वो इन्द्र तथा चक्रवर्तीको नहि है. तथा जितना मनुष्य जादे संबंधी होगा, उतनाही दुःख जादे नीकलेगा. किसीको ज्वर आता है, किसीका मस्तक दुखता है, कोई मुमूर्ष है, सबके दुःखसे दुखी होना पडता है, राज्याधिकारकी तो औरभी दुर्दशा है. उसकी इच्छा करनी तो सबसे खराब है. आज कल राज्याधिकार ये है कि, अमुक महाशयको ५००) जुलमाना करने का अधिकार मिला. अक महाशयको छ मास कैद करनेका अधिकार मिला. परंतु सभ्यगण ! एसाभी अधिकार आपने सुना है ? कि अमुक शेठजीको फांसी माफ करनेका अधिकार मिला, अथवा अमुक शेठजीको कैद माफ करनेका अधिकार मिला. मित्रगण ! जिससे जीवदया पलेवोही तो अधिकार कहा जाता है ? और जो क्रूर परिणाम करनेवाले
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