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सा मालूम होता है। बात यह है कि जैन सगुण ईश्वर को नहीं मानते हैं । इनका सिद्धांत इस विषय में सांख्य मत से मिलता है लेकिन सांख्यमत नास्तिक नहीं है और न हम जैनधर्म को नास्तिक कह सकते हैं। प्रश्न है कि क्या वेदान्त मत नास्तिक कहा जा सकता है ? कदापि नहीं । वेदान्त केवल आत्मा को ही मानता है ब्रह्म और आत्मा एक ही है इसमें भी सगुण और साकार ईश्वर का महत्व नहीं माना गया है । वेदान्त कहता है कि प्रत्येक मनुष्य अपने जप तप सत्कर्मों के द्वारा अपनी आत्मा का ऐसा विकास कर सकता है कि वह ब्रह्म रूप हो जाय । जीवन मुक्त मनुष्यों की यही अवस्था है । वे आध्यात्मिक ज्ञान की पराकाष्ठा पर पहुंच जाते हैं वे स्वयं ब्रह्म रूप हो जाते हैं उनमें और ईश्वर में योई भेद नहीं रहता है । यही अवस्था तीर्थकरों की है। जन्म जन्मान्तरों में घोर तप के द्वारा कर्म बंधनों को तोड़ कर ये तीर्थंकर पदवी को प्राप्त करते हैं। जब तक ये संसार में रहते हैं तीर्थंकर या अरिहंत कहलाते हैं और मृत्यु के पश्चात् सिद्धावस्था को प्राप्त करते हैं । यदि इन्हें ईश्वर कहा जाय तो कोई बात अनुचित नहीं है यदि ईश्वर विषय में जैनो के सिद्धान्त सांख्य और वेदान्त दार्शनिक मतों से मिलते हैं तो इनपर नास्तिकता का आक्षेप नहीं हो सकता है बल्कि इनके दार्शनिक विचारों की प्रशंसा हो शकती है।
जैन धर्म में ईश्वर का अर्थ सृष्टिकर्ता शुभाशुभ कर्मों का फल दाता तथा अन्य ऐसे ही कार्य करनेवालेका नहीं है। वे कहते हैं ईश्वर वह है जो सर्वज्ञ और सर्व शक्तिमान् है जिसे संसार की रचना से कोई संबंध नहीं, जिसे कर्मों के फल देने से कोई सरोकार नहीं, जिसे मनुष्योंकी मनो. कामना पूर्ण करने तथा उनके दुष्ट कर्मों को क्षमा करने का कोई झंझट नहीं है। ये सब बातें जैन अपने सिद्धों में मानते हैं, इसलिए वे इन्हें ही ईश्वर कहते हैं। जैनों के इस अर्थ
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