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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सचित्र जैन कथासागर भाग - २ ८२ समय एक युवा साधु कोने पर एक वेश्या के कंधे पर हाथ रखकर खड़ा था और आपने उसको वन्दन किया था, स्मरण है ?' मंत्री ने कहा, 'हाँ महाराज ! जीव कर्म-वश है। किसी का उत्थान भी होता है और किसी का पतन भी होता है ।' 'उस साधु को आपने कोई उपालम्भ नहीं दिया। आप वन्दन करके चले गये परन्तु उसके हृदय में उस कृत्य के लिए उसे अत्यन्त लज्जा का अनुभव हुआ, उसे पश्चाताप हुआ। उसने आचार्य भगवन् श्री हेमचन्द्रसूरि के पास पुनः दीक्षा अङ्गीकार की । वह अपने गुरु की आज्ञा लेकर पश्चाताप पूर्वक शत्रुंजय गिरिराज की शीतल छाया में तप करने के लिए आया । भाग्यशाली मंत्रीवर ! वह साधु मैं ही हूँ । अतः परमार्थ से आप ही मेरे गुरु हैं । आपने मुझे कोई उपदेश नहीं दिया परन्तु आपके व्यवहार ने मुझे धर्म-मार्ग की ओर उन्मुख किया है।' मुनि ने मंत्री का आभार मानते हुए अपना वारह वर्षो का जीवन पट उनके समक्ष खोला । मंत्री बोले, 'भगवन् ! उसमें मैं उपकारी नही हूँ । आप ही उत्तम महात्मा हैं जो अनायास ही तर गये । देखो, हम तो अभी तक वैसे ही संसार में गोते खा रहे हैं ।' मंत्री पुनः उन्हें नमस्कार करके अपने निवास पर गये और मुनि ने दीर्घ काल तक उग्र तप करके आत्म-कल्याण किया । शान्तु मंत्री तो आज नहीं हैं, परन्तु उनका गम्भीर व्यवहार तो आज भी वैसा ही सुनाई देता है। ( उपदेश प्रासाद से) For Private And Personal Use Only ]]]]] -हरि मुनि बोले, मंत्रीवर ! मेरे गुरु शांतु मंत्री आप हैं! यूं कह कर पूर्वकालीन घटना को स्मरण करवाया. मंत्री की गंभीरता एवं मुनि की कुलीनता, दोनों का सुभग मिलन चमत्कार कर गया!
SR No.008588
Book TitleJain Katha Sagar Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShubhranjanashreeji
PublisherArunoday Foundation
Publication Year
Total Pages143
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size9 MB
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