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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandiri बोलने की अपेक्षा नहीं बोलना श्रेष्ठ है अर्थात् विजय सेठ की कथा ६७ झगड़ा शान्त हो जाता, परन्तु विजय के 'बोलने की अपेक्षा नहीं बोलना श्रेष्ठ' ये वचन परिवार के मनुष्यों में प्रसिद्ध हो गया। एक वार छोटे पुत्र ने पिता को कहा, 'पिताजी, बाकी तो ठीक है परन्तु आप जबतब यह क्यों कहते हैं कि 'बोलने की अपेक्षा नहीं बोलना श्रेष्ठ?' आपको इसका कोई कटु-मधुर अनुभव हुआ है क्या?' विजय तनिक मुस्कराया । पुत्र समझा कि अवश्य इसमें कुछ भेद है। अतः उसने आग्रह किया कि, 'नहीं पिताजी! आप इसका रहस्य समझाइये।' विजय ने कहा, 'पुत्र! पूछने की अपेक्षा नहीं पूछना श्रेष्ठ है।' पुत्र के अधिक आग्रह करने पर वह बोला, 'सुन, यह बात मैंने कभी किसी को कही नहीं है, फिर भी तुझे बताता हूँ । पेट में रखना ।' इतना कह कर उसकी माता ने उसे जो कुँए में धक्का मार दिया था वह विस्तृत बात उसे कह दी और साथ ही साथ कहा कि 'तू यह बात गुप्त रखना, किसी को कहना मत ।' कुछ दिनों तक तो उसने किसी को यह बात नहीं कही परन्तु एक बार सास-बहू में बहुत झगड़ा हुआ तब छोटे पुत्र ने अपनी पत्नी को कहा, 'क्यों लड़ती हो? पिताजी नित्य कहते हैं कि 'वोलने की अपेक्षा नहीं बोलना श्रेष्ठ' - यह नहीं समझती? मेरी माता ने मेरे पिता को भी कहाँ छोड़ा? उसने भी उन्हें कुँए में धक्का मार दिया था।' बहूने इस बात की गाँठ बाँध ली और जब पुनः सास के साथ झगड़ा हुआ तब वह बोली, 'बैठो बैठो सासजी! तुम कैसी हो यह मेरे ससुर को ही पूछो न?' उनको बिचारे को भी कुँए में धक्का मार दिया था वह तुम थी अथवा कोई अन्य?' सास को झगड़े का दौर उतर गया। मैं क्या सुन रही हूँ यह विचार करने पर उसकी आँखों के आगे अन्धकार छा गया। उसे अनुभव हुआ कि अव मेरा इस घर में वर्चस्व नहीं रहेगा। यह पुत्र-वधु भी जान गयी है कि 'सास ऐसी है' फिर मेरा वर्चस्व कैसे रहेगा? तुरन्त 'श्रीमती' को चक्कर आया और तत्काल हृदय-गति बन्द होने से वहीं उसकी मृत्यु हो गई। विजय सेठ को जब यह ज्ञात हुआ तब उसे अपार पश्चाताप हुआ। वह बोला कि मैंने वर्षों तक गम्भीरता रखी, एक शब्द भी नहीं बोला और सबको 'बोलने की अपेक्षा न बोलना श्रेष्ठ' का उपदेश देने वाले मैंने स्वयं ही छोटे पुत्र के आगे बोल कर मैंने अपना घर नष्ट किया । छोटे पुत्र को भी घोर पश्चाताप हुआ परन्तु अब क्या करता? श्रीमती की मृत्यु के उपरान्त विजय सेठ को शान्ति नही मिली और उन्होंने दीक्षा अंगीकार कर ली; परन्तु उनका उपदेश 'बोलने की अपेक्षा नहीं बोलना श्रेष्ठ' तो सदा के लिए उनके घर में गूंजता रहा। (प्रबन्ध-शतक से) For Private And Personal Use Only
SR No.008588
Book TitleJain Katha Sagar Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShubhranjanashreeji
PublisherArunoday Foundation
Publication Year
Total Pages143
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size9 MB
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