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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir संसार का मेला अर्थात् चन्दन मलयागिरि २५ कर वहाँ से निकल कर वे दोनों भाई श्रीपुर नगर में आये। श्रीपुर नगर में इधर-उधर घूमने के पश्चात् उन दोनों ने राजा के महल में सन्तरियों की नौकरी स्वीकार कर ली। वे नित्य राजा को प्रणाम करते और अपना कर्तव्य बजाते थे। राजा उन्हें पहचान नहीं पाया और न ही वे दोनों भाई राजा को पहचान पाए। ___ मलयागिरि चन्दन, सायर और नीर का स्मरण करती हुई व्यापारी के साथ घूम रही थी। व्यापारी ने उसे विचलित करने के तथा उसे सताने के अनेक प्रयत्न किये परन्तु वह सफल नहीं हुआ और न उसका मोह छोड़ कर वह उसका परित्याग भी कर सका । मलयागिरि जिनेश्वर भगवान के स्मरण-कीर्तन में समय व्यतीत करती और अच्छे दिनों की प्रतीक्षा में थी। सार्थवाह घूमता-घूमता श्रीपुर नगर में आ पहुँचा। उसने राजा को उत्तम उपहार भेजे और अपनी सम्पत्ति की सुरक्षा करने के लिए दो सन्तरियों की माँग की । राजा ने युवा योद्धा सायर और नीर को सार्थवाह की सम्पत्ति की सुरक्षा करने के लिए भेज दिया। ठीक गाँव के बाहर ही व्यापारी के तम्बू लगे थे। मध्य में दो विशाल तम्बू थे। एक तम्बू में व्यापारी और दूसरे में मलयागिरि थी। आसपास में नौकर-चाकरों की रावटियाँ एवं गोदाम थे। शीतकाल की रात्री होने के कारण वह कठिनाई से व्यतीत हो रही थी। सायर, नीर एवं व्यापारी के अन्य सन्तरियों में वार्तालाप छिडा और वे एक दूसरे को आप-बीती बातें कहने लगे । सायर और नीर ने अपनी 'राम कहानी' कहनी प्रारम्भ की, 'हम अपनी क्या बात कहें? हमारे पिता कुसुमपुर के राजा चन्दन और हमारी माता मलयागिरि है। हम सायर और नीर उनके दो पुत्र हैं। हम पर ऐसी विपत्ति आई कि पहने हुए वस्त्रों से हमें अपना नगर कुसुमपुर छोड़ना पड़ा और हम कुशस्थल आये। पिताजी ने पुजारी की नौकरी कर ली और माता ने जंगल से लाकर लकडियाँ बेचना प्रारम्भ किया। एक दिन रात तक माता नहीं आई। वह कहाँ गई कुछ पता न लगा । पिताजी उसकी खोज में निकले । हम उनके साथ थे। नदी के तट पर मुझे छोडा और दूसरे तट पर नीर को छोडा । नीर को छोड़ कर लौटते समय नदी के तीव्र वेग में पिताजी वह गये । कहाँ गये पिता और कहाँ गई माता मलयागिरि जिसका कोई पता नहीं लगा। कुछ समय के पश्चात् एक सार्थवाह आया जिसने नीर को और मुझे साथ लिया, हमारा पोषण किया, परन्तु हम वहाँ नहीं रहे । हमने श्रीपुर आकर वहाँ सन्तरियों की नौकरी की । क्या भाग्य की बलिहारी है और क्या जीवन के संयोगवियोग हैं?' For Private And Personal Use Only
SR No.008588
Book TitleJain Katha Sagar Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShubhranjanashreeji
PublisherArunoday Foundation
Publication Year
Total Pages143
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size9 MB
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