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सचित्र जैन कथासागर भाग - २ राजा भड़क उठा। उसने तुरन्त पुरोहित को बुलवा कर कहा, 'पुरोहित! तुम्हारे कथनानुसार वहाँ शस्त्र पाये गये । साधु का वेष लेकर क्या उन्होंने पाखण्ड जमाया है? तुम्हें जैसा उचित प्रतीत हो वैसा कठोर दण्ड दें और एक-एक का वध कर डालें ।'
पुरोहित मुस्कराया और मन में बोला, 'मेरी युक्ति कारगर हुई। स्कन्दक के आवास के नीचे मेरे द्वारा खड्डे में रखवाए गए शस्त्रों ने मेरे अपमान का पूरा बदला ले लिया ।'
प्रातःकाल के समय पालक पुरोहित उद्यान में आया और बोला, 'क्यों महाराज! मुझे पहचानते हैं न? मैं पालक हूँ।'
सूरि ने पहचान कर सिर हिलाया । इतने में वह आगे बोला, 'श्रावस्ती में आपने मेरा अपमान किया था, मैं उसका बदला लेना चाहता हूँ। आप किसी को भी छोड़ने वाला नहीं हूँ। सबको उल्टे कोल्हू में पेलूँगा।'
सूरिवर को भगवान के वचन का स्मरण हुआ । वे अधिक स्थिर हुए और मरणान्त उपसर्ग सहन करने के लिए अपने सत्त्व को उत्तेजित करके बोले, 'महानुभाव! हम मुनियों के लिए जीवन एवं मृत्यु समान हैं।'
'महाराज! कोल्हू में पेले जाओगे तब सच्चा पता लगेगा।' कह कर हर्ष-विभोर पालक ने चाण्डाल को बुला कर आदेश दिया, ‘इन्हें एक-एक को पकड़ कर कोल्हू में डाल कर पेलो।'
स्कन्दकसरि ने प्रत्येक शिष्य को कहा, 'मुनिवरो! क्षमा में चित्त लगाना। मरणान्त उपसर्ग सहन करने वाला व्यक्ति यदि चित्त शान्त रखे तो केवलज्ञान प्राप्त करता है। ऐसा उपसर्ग करने वाला हमारा शत्रु नहीं, उपकारी है, सबने आहार-पानी वोसिराये, पंच महाव्रतों का स्मरण किया और बारह भावनाएँ मन में लाई।
पालक ने सोचा कि पहले स्कन्दक (खन्दक) को पेलूँ अथवा उसके शिष्यों को? पल भर सोच कर वह बोला 'स्कन्दक को अन्त में; सबको उसके समक्ष पेल कर अपने अपमान का बदला लूँ और अन्त में उसे जीवित पेलूँ।'
स्कन्दकसूरि मौन रहे । उनका चित्त पालक पर नहीं रूठा। उनके मन में एक ही वाणी गूंज उठी, 'स्कन्दक! सब आराधक परन्तु तू विराधक।' कहीं मैं विराधक न बनें उसके लिए उसने मन पर अत्यन्त नियन्त्रण रखा और प्रत्येक मुनि से कहा, 'आत्मा एवं देह भिन्न है । देह का नाश भले ही पालक करे, परन्तु वह तुम्हारी आत्मा का नाश नहीं कर सकेगा। तुम समाधि रखना।' इस प्रकार सबसे देह के प्रति ममत्वभाव का
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