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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सचित्र जैन कथासागर भाग - २ स्वामी ने स्कन्दक मुनि को आचार्य पद पर प्रतिष्ठित किया | स्कन्दक मुनि स्कन्दकसूरि बन गये। (४) एक वार स्कन्दकसूरि भगवान के समक्ष आकर बोले, 'प्रभु! मेरे पुरन्दरयशा नामक एक बहन थी। उसे मेरे प्रति अगाध प्रेम था। मैं दीक्षित होकर आचार्य बन गया हूँ फिर भी उस बहन को हृदय से भुला नहीं सका। मेरी इच्छा उसके पास जाने की है। वह मेरा संयम देख कर मेरी ओर प्रेरित होगी और उसका पति जो कुल-परम्परा के अनुसार मिथ्यात्वी है, वह भी मिथ्यात्व से हट सकता है।' भगवान तो महा ज्ञानी थे। उन्होंने भविष्य जान लिया और कहा, 'जाना हो तो जाओ परन्तु तुम्हें वहाँ मरणान्त उपसर्गों का सामना करना पड़ेगा।' स्कन्दकसूरि मूल से तो क्षत्री-पुत्र थे, अतः वे तुरन्त सावधान होकर बोले, 'भगवन्! मरणान्त उपसर्ग! सर्वोत्तम; परन्तु भगवन हम आराधक रहेंगे अथवा विराधक बनेंगे?' ____ 'स्कन्दक! सब आराधक होंगे परन्तु तु आराधक नहीं रहेगा।' स्कन्दक का क्षत्रीतेज झलक उठा। भगवान की स्वीकृति न होने पर भी अपने सत्त्व की परीक्षा करने की उनकी इच्छा हुई और किसी भी तरह मरणान्त उपसर्ग सहन करके आराधक बनने की उनमें दृढ़ता जाग्रत हुई। _स्कन्दक ने निश्चय पूर्वक भगवान को पूछा, 'प्रभु! मेरे एक के अतिरिक्त सबका तो कल्याण होगा ही न?' 'अवश्य ।' 'भगवन्! तो मैं वहाँ जाकर पाँच सौ के आराधक होने में निमित्त क्यों न बनूँ?' भगवान मौन रहे। पालक पुरोहित ने लोगों से सुना कि स्कन्दसूरि पाँचसौ मुनियों के साथ कुम्भकार नगर में आ रहे हैं। सम्पूर्ण नगर अत्यन्त प्रसन्न था और सभी आचार्यश्री के दर्शन के लिए तरस रहे थे, परन्तु केवल पालक ईर्ष्या की आग में जल रहा था । वह स्कन्दक द्वारा किये गये अपमान का बदला लेने का विचार करने लगा | टेढ़ी-मेढ़ी युक्तियों का विचार करने के पश्चात् उसने एक युक्ति खोज निकाली और वह हर्ष के मारे नाच उठा। For Private And Personal Use Only
SR No.008588
Book TitleJain Katha Sagar Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShubhranjanashreeji
PublisherArunoday Foundation
Publication Year
Total Pages143
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size9 MB
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