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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सचित्र जैन कथासागर भाग १०२ को शिकार में सफलता न मिलने के कारण उसने इस वकरी को तीर से मार दिया । परन्तु समीप आने पर ज्ञात हुआ कि यह गर्भवती है। अतः उसने उसका गर्भ चीरवा कर बच्चे को बाहर निकाला जिसे बकरी का दूध पिला कर बड़ा किया। राजन् ! बकरे का बच्चा वन कर मैं गुणधर के वहाँ आनन्द पूर्वक रहने लगा । समय व्यतीत होते-होते मैं हृष्ट-पुष्ट वकरा वन गया । - २ (२) एक वार राजा गुणधर ने दस पन्द्रह भैंसे मारे और उन्हें देवी के समक्ष रखा। तत्पश्चात् उनका माँस पका कर ब्राह्मणों को भोजन के लिए दिया । राजा के भोजनगृह में इस निमित्त उत्तम 'रसवती' तैयार हुई । ब्राह्मण दो पंक्तियों में भोजन करने वैठे - 'मेध्यं मूखं हि मेषाणाम्' इस वेदोक्ति से मुझे भी रसोईघर में लाया गया। राजा ब्राह्मणों से आशीर्वाद प्राप्त करने आया । उसने सर्व प्रथम पहली पंक्ति में खड़े ब्राह्मणों को प्रणाम किया और कहा, 'ब्राह्मणों की इस पंक्ति को भोजन कराने का फल मेरे पिता को प्राप्त हो ।' तत्पश्चात् उसने दूसरी पंक्ति को नमस्कार किया और कहा, 'इस दूसरी पंक्ति को भोजन कराने का फल मेरी दादी को प्राप्त हो ।' ब्राह्मण बोले - 'राजन! आपका कल्याण हो! आपके पिता हमारे इस ब्राह्मण देह में संक्रमण करके पिण्ड ग्रहण कर स्वर्गलोक में सुख भोग रहें हैं ।' यह सुन कर मुझे जातिस्मरणज्ञान हुआ और मैं सोचने लगा यह कैंसी कपट-लीला है | जिसके निमित्त राजा गुणधर यह दान कर रहा है वह तो मैं दुःखी हूँ । उन्हें दिया हुआ मुझे तो तनिक भी प्राप्त नहीं होता । तत्पश्चात् राज्य-परिवार, दास-दासियों सबको देख कर मैं बोला, 'यह मेरा महल है, ये मेरे सेवक हैं, यह मेरा भण्डार है, मैं 'मेरा-मेरा' कह कर प्रफुल्लित हुआ और मैं 'में में' की आवाज करने लगा, पर किसी ने मुझे कुछ भी महत्व नहीं दिया । (३) For Private And Personal Use Only ब्राह्मणों के भोजन- समारोह के पश्चात् अन्तःपुर की स्त्रियाँ आई । वे मेरे वियोग के कारण अशक्त हो गई थीं, परन्तु इनमें मैंने नयनावली को नहीं देखा अतः मैने माना कि या तो वह अस्वस्थ हो गई होगी या उसका देहान्त हो गया होगा, अन्यथा, ऐसे उत्सव में तो उसे अत्यधिक रुचि है । अतः वह अपने पुत्र के इस उत्सव में आये विना रहती ही नहीं । मैं इस प्रकार विचार कर ही रहा था कि दो दासी परस्पर वार्त्तालाप करती हुई बोलीं- 'यहाँ इतनी अधिक दुर्गन्ध किस वस्तु की है ?"
SR No.008588
Book TitleJain Katha Sagar Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShubhranjanashreeji
PublisherArunoday Foundation
Publication Year
Total Pages143
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size9 MB
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