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________________ www.kobatirth.org दुःख की परम्परा अर्थात् दूसरा, तीसरा, चौथा भव तीसरा भव Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra (३) राजन्! मेरा तीसरा तथा चौथा भव हिंसा का है और उत्तरोत्तर हिंसा की अभिवृद्धि करने वाला है। Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मैं मोर की देह छोड़ कर दुःप्रवेश नामक वन में नेवले के रूप में उत्पन्न हुआ । उस भव में मैंने अनेक जीवों की हिंसा करके अपनी देह परिपुष्ट की। मेरी माता का जीव कुत्ते की योनि का त्याग कर इसी वन में साँप के रूप में उत्पन्न हुआ । भवितव्यता के योग से हम दोनों का इस वन में पुनः मिलाप हुआ, परन्तु पूर्व भव की शत्रुता होने से मैंने साँप को पूँछ से पकड़ लिया, साँप ने भी टेढ़ा मुड कर मुझे डसा | हम दोनों परस्पर इस तरह लड़ रहे थे। इतने में जरक्ष नामक एक भयंकर प्राणी आया और उसने मुझे उठा कर बलवान व्यक्ति किसी लकड़े को चीर डालता है उसी प्रकार उसने मुझे जीवित चीर डाला और वह तुरन्त मेरा रक्त पी गया । अनाथ की तरह उस समय मेरी मृत्यु हो गई। मेरे पश्चात् अल्प समय में ही वह साँप भी मेरे प्रहार से दुःखी होकर मर गया । ch राजन् ! कर्म की कैसी अद्भुत कला है कि वह एक हाथ से जैसा जीव लेता है वैसा ही दूसरे हाथ से देता है। पूर्व भव में कुत्ते ने मोर को मारा था, इस भव में मोर तीसरा भव यशोधर नेवले के रूप में व यशोधरा सर्प की योनि में. ९९ For Private And Personal Use Only चाथा भव: यशोधर मत्स्य की योनि में व यशोधरा ग्रहा के रूप में.
SR No.008588
Book TitleJain Katha Sagar Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShubhranjanashreeji
PublisherArunoday Foundation
Publication Year
Total Pages143
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size9 MB
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