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५.१
११
श्री गुरुमहिमा.
रांग उपरनो
बुद्धिसागर गुरुदेवजी, जपीये आपनो जापजी; मनडाना मोह शमावजो, टाली तनडाना तापजी:
बुद्धि-टेक०
धर्म पाल्यो त धैर्यथी, कोथां धर्मनां कार्मजी, अन्यने धर्म पलावीयो, गया धर्मना धामजी, बुद्धि० ||१|| योगप्रदेशथी आवीया, पाल्यों योग आचारजी; सिद्धस्वरूपी सदा तमो, दीव्यज्ञान दातारजी, बुद्धि० ॥२॥ दर्शन फरी हवे क्यां मले ? क्यारे देशो सत्संगजी; क्यारे याशे भव्यदर्शने, उरमांही उमंगजी. बुद्धि० ॥३॥ मूर्ति मधुर मनमोहिनी, पेखी प्रगटतो प्रेमजी; विरही शिष्यो गुरुदेवना, करिये स्थिर मन केमजी ? बुद्धि० ||४|| पारस केरा शुद्ध स्पर्शथी, लोह कुंदन धायजी. आत्मापरात्म बने नहीं, जीत्र पणुं नव जायजी;
बुद्धि० ॥५॥
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आत्मपरात्म बने तदा, मले सद्गुरु देवजी. उत्तम सत्संग आपतां; करतां सत्संग सेवजी. बुद्धि० ॥६॥