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मनमां
आणो;
प्रमाणो;
कल्पसूत्रे केयुं एम क्रे सुरिवाचकमुख जेमांही ते गच्छ माध्यस्थादिक भाव धरो वर्ती व्यवहारे, जिननी आज्ञा भव्य प्राणीने भवजल तारे मूढ कदाग्ररी प्राणिया भ्रांत जोवे नहि कश्यूँ, जेम नळीयुं पडयुं वायरे देखीने कृतरु भस्युं ॥२९॥
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आनंदघनजी अनंतनाथना स्तवने भाखे, गच्छतणा बहु भेद इत्यादिक जे जे दाखे; गच्छनो त्याग करो' एवं नहि एमां दाख्युं, गच्छादिकनो मोह त्याग एवं त्यां भाख्यं; स्तवन श्रीनमिनाथनुं पंचांगी साची कही, आनंदघननो वाणीमांहि जनुभवता गुरुगमर हो. ॥३०॥
चिदानंद महाघीर स्वरोदय रचियो सारो, वांची मानव मनविषे लागे छे प्यारा; ग्रो साधुनो वेष अखंडित संयम पाळ्युं, आतम ध्याने स्थिर थह जीवन सह गाळयुं; साधु मार्गनी पुष्टिथी बिरुद राख्युं योगनुं, ज्ञान ध्यानना योगथी नाम न लीधुं भोगनुं ॥ ३१ ॥
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धर्मदास गणि वचन विचारो उपदेशमाला, शासनना वडवीर साधु छे मंगलमाला: साधु विना नहि तीर्थ तीर्थ विण धर्म न क्यांइ, उपदेशक मुनिराय तीर्थमां समजो आंही; अल्प ज्ञानना दोषथी समजे नहि सिद्धांतमां, पामर पापी प्राणिया हा पडी रहे छे भ्रांतमां ॥ ३२ ॥