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स्वार्थनी भ्रान्तिमा ब्रह्मनी भूल छे, स्वार्थथी मोटका पाप थावे.
स्वार्थ. ॥४॥ स्वार्थमा सहु फॅस्या कोइ विरला बच्या, स्वार्थथी पापनी वात थावे; स्वार्थी धर्मनी चक्षुए अन्ध छे,स्वार्थथी पापर्नु अन्न खावे.स्वार्थ.५ दोपर्नु मूळ छे स्वार्थ अवनी विषे, स्वार्थथी मानवी सत्य हारे मात पुत्रो हणे बाप पुत्री हणे,स्वार्थना दोषथी जीव मारे. स्वार्थ.६ जगत्ना स्वार्थमां न्याय छे नहि कशो,जगत्ना स्वार्थमां दुःख मोडे; मोह अज्ञानथी स्वार्थनी आशमां, बोलता प्राणिया वेण खोटं.स्वार्थ.७ स्वार्थनी धूनमां देव भासे नहीं, स्वार्थनी धूनमां मंजन भूले; स्वार्थना त्यागथी सत्य तो सांपडे, सत्य आनन्दता दील खूले.
स्वार्थ. ॥ ८ ॥ सङ्गति गुरुतणी सर्व मुखमूल छे, प्रार्थना पाशने तेहि कापे बुद्धिसागर सदा स्वार्थने त्यागिए, ध्यान कीजे मुदा ब्रह्म जापे.
स्वार्थ. ॥ ९॥
परमार्थ स्वरूप.
झूलणाछन्दः वात परमार्थनी सत्य छे जगत्मां, वात परमार्थनी दील धारो; संत्य परमार्थमां प्रकट परमातमा,सत्य परमार्थथी दुःख आरो. वात.१ सत्य परमार्थमां धर्म सहु सम्पजे, सत्य परमार्थथी पाप जावे देवनी कोटि पण हस्त जोडी रहे, अप्सराटन्द बहु गुण गावे. वात. २ सत्य परमार्थथी सत्य उपकार छे, सत्य परमार्थथी मुक्ति पामे; आत्मथी भिन्न नहि सत्य परमार्थ छे, देवतावृन्द पण शीर्ष नामे. वात. ३ सत्य परमार्थमां दुःख आवी पडे, डगो नहि तेहथी धैर्य हारी; जय सदा सत्य परमार्थनो जगत्मां,स्वार्थ त्यागी करो तत्र यारी.वात.४
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