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निर्विकल्प उपयोग धरी चानने तारो; आत्मजीवन उच्च करवा प्रणव सत्योपाय छे, बुद्धिसागर प्रणवमंत्रे सहज लीला थाय छे. ॥ ११ ॥ प्रणवमंत्रथी चित्ततणा सहु दोष टळे छे, प्रणवमंत्रथी सात्त्विक गुणमा चित्त मळे छे; प्रणवमंत्रथी संयमनी प्रगटे छे सिद्धि, प्रणवमंत्रथी आत्यंतिक सुखनी छे रुद्धि प्रणवमंत्र स्वप्न निर्मल देवं दर्शन थाय छ, मोहग्रंथी भेद थातां शक्ति झट परखाय छे. ॥१२॥ हृदयकमळमां स्थिरोपयोगे ध्यान खुमारी, हृदयकमळमां स्थिरोपयोगे शिव तैयारी हृदयकमळमां स्थिरता साधी शिवपद लीजे; प्रणवमंत्रने ह्रदयकमळमां नित्य वहीजे, असंख्यप्रदेशी आत्मदर्शन कीजीए प्रेमे सदा, बुद्धिसागर आत्मदर्शन स्थिरोपयोगे छे मुदा. ॥ १३ ॥ पश्यति प्रगटेछे त्राटक योगे साची, हृदय कमळमां ध्यान धरीने रहेशो राची; शुद्ध विचारो परातणा पण प्रगटे साचा, पश्यंति प्रगट्याथी निर्मल साची वाचा. असंख्यप्रदेशी ध्याववाथी पश्यति विकसे खरी, बुद्धिसागर परा पश्यति युक्ति झट दिलमां धरी. ॥१४॥ परा पश्यंतिमां तो प्रभुतुं रुप जणातुं, अनुभवथी योगीश्वर वचने सत्य ग्रहातुं शुद्ध स्वभावे आत्मिक दर्शन तुर्त पमातुं, आत्मिकभावे अनंत सुख तो दिलमां थातुं.
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