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अखंड ज्योति झळके झळहळ सुरता साधे, वरसे समता नूर आत्मनी शक्ति वाधे; अखंड स्थिर उपयोगमाहि चैतन्य शक्ति दिनमाण, बुद्धिसागर अनुभवे त्यां देह स्वामी जगधणी. ॥७॥ नाभिकमलमां असंख्यत्रदेशी चेतन ध्यावो, चिदानंद भगवान इशने भावे भावो; रुचक प्रदेशो अष्ट सिद्ध सम निर्मल सारा, अष्ट सिद्धि दातार धरो मनमा सुखकारा. आत्मसिद्धि प्राप्त करवा ओंकार मनमां ध्याइए, बुद्धिसागर प्रणवमंत्रे सिद्धलीला पाइए. ॥८ ॥ अगम्य शब्दातीत प्रणवथी सहेजे मळशे, रजस् तमो गुण दोष प्रणवथी सहेजे टळशे; सात्विक गुणनी वृद्धि परंपर शाश्वत लीला, निर्भय शुद्ध स्वरुप रंगमां भव्य रसीला. देव दानव भूत कोडी प्रणवथी पाये पड़े, बुद्धिसागर अकल निर्भय तत्व मौक्तिक कर चडे ॥९॥ प्रणवत्रना अर्थयकी चेतनने ध्यावो, पामी नरभव दुर्लभ लेशो आत्मिक ल्हाको; परम इश भगवान खरेखर चेतन परखो, प्रणवमंत्रथी चेतन ध्याने मनमा हरखो, परम इश्वर प्राप्त करवा प्रणव साचो ध्याइए; शुद्धिसागर ध्यान लोला प्रगवांत्रे पाइए. ॥१०॥ हृदय कमलमां प्रणवत्रने मे स्थापो, निजगुण शक्ति खोलवी निजने सहेजे आपो; विषय विकारो त्याग करी अंतर गुण धारो,
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