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उपाधि दुःखनी कुंची, विनाशे धर्मनी रुचि भमे छे चित्त चकडोळे, उपाधि पापमां ढोळे. ॥२॥ उपाधि झेरना प्याला, उपाधि अग्निनी ज्वाला; उपाधि राक्षसी मूंडी, उपाधि मोहनी लूंडी. ॥ ३ ॥ उपाधि भान भूलावे, उपाधि रोगने लावे; उपाधि भ्रांत जनमा छे, उपाधि भ्रांत मनमां छे. ॥४॥ उपाधि टाळतां शांति, उपाधि टाळतां कांति; बुद्धयब्धि ध्यानमा रहेवू, अनंतुं सुख दील लेवु. ॥५॥
॥२॥
स्वरूपोद्गगार.
गझल. तजु छं भाव ममताना, सजु छं भाव समताना; खरी नहि बाह्य उपाधी, अहो त्यां मोहथी आधि, परम शक्ति विलासी हुं, परम शांति प्रकाशी हुँ; अखंडानंद भोगी हुँ, अखंडानंद योगी हूं. नही हुं लिंग के जाति, नहि हुं देह के ज्ञाति; रह्यो हुँ ज्ञानमां जागी, थयो हुँ सत्यनो रागी. जगत्ना खेलथी न्यारो, अनंना जीव पर प्यारो; खमा सर्व जीव राशि, थयो ढुं तत्वविश्वासी. परम ध्याई परम भावू, परम चाहु परम गाउ; परम चैतन्यमां प्रीति, परम चैतन्यमां रीति. नथी थातुं नथी जातुं, अपेक्षा वाक्य कहेवातुं; समायो छ स्वभावे हुँ, परमज्ञान प्रभाव हुं. अहो हुँ ज्ञाननो दरियो, अहो हुँ मुखथी भरियो; अहो हुँ शुद्ध वैरागी, बन्यो हुं मोहनो त्यागी.
॥३॥
॥४॥
॥६॥
॥७॥
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