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२३४ गुरुकृपाथी ज्ञान ठरतुं, होवे गुणगण धाम रे. गुरु.॥१॥ गुरुकृपाथी चित्त निर्मळ, पेखे शास्वत पन्थनी; गुरुकृपा विण तत्व नहि छे, वांचे लाखो ग्रन्थ रे. गुरु.॥२॥ गुरुकृपाथी दुःख नासे, आनंद अपरंपारजी; गुरुकृपाथी आत्मदर्शन, अनेकान्त मत प्यार रे. गुरु.॥३॥ गुरुकृपाथी देवदर्शन, भामे आतम ज्योतजी; गुरुकृपाथी श्रुतवाणी, समजतां उद्योतरे. गुरु.॥४|| गुरुमहिमा मेरु सम छे, कहेतां नावे पारजी; बुद्धिसागर गुरुकृपाथी, सफल छे अवतार रे. गुरु.।।५।।
अनंतज्ञानभंडार आत्मा.
झुलणा. रुद्धि सिद्धि धणी चेत चेतनमणि, ज्ञानने ज्ञेयरुपे सुहायो ज्ञेयथी भिन्न तुं ज्ञानथी भिन्न नहि, आतमा ज्ञेयरुपे कहायो. रुद्धि० ।।१।। ज्ञेयथी भिन्न नहि ज्ञानपर्यायथी, ज्ञानथी सर्व सापेक्षयोगे; ज्ञान ते धर्म छे मुख्य लक्षणपणे, ज्ञान वण आतमा दुःख भोगे. रुदि. ॥२॥ केवलज्ञानथी सिद्धिना शर्ममां, आतमा झीलतो तत्त्वयोगी; ज्ञान वण आंधळो जीव सपजे नहि, आत्म रुद्धि थकी छे वियोगी. रुद्धिः ॥३॥ नित्य अभ्यासथी ज्ञानशक्ति वधे,
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