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परम स्वरुप राचता ने चित्र दोपा परिहरे, कपटी जे दूर रहे सत्य शांति तं वरं वैरागी गंभीर वढे जे निर्मळ वाणी, अंतरम उपयोग अहो जे सह गुणखाणी; आतमज्ञान विना नहि जगमां साचा साधु, कपटीओए जगवंदने फोली खार्थः मन वशमा राखे सदा ने कनक कान्ता परिहरे, बाह्य किरिया राचता नहि साधु तेवा सुख वरे ॥ २ ॥ देश धरीने क्लेश न करता समता दरीया, ज्ञान ध्यानमां निवळ चेतन चित्सुख वरिया; वेष अने आचार ज्ञानथी साधु परखो, करो ज्ञानिनुं मान सदा मनमांहि हरखो; साधु सद्गुरू चरणकमळे, दास जनतो भृंग छे; धन्य धन्य ते मुनिवरा जग, ध्यानमां जस रंग छे. ॥३ ॥ समजे नहि निज तत्त्व साधु शुं आतम साधे, समजे नहि निज तत्व अहो ते धर्म विराधेः ज्ञान विना किरिया पाखंडे जे जन वळग्या, तवा साधु मुक्ति थी वहु छे अलगा; सदुपदेशे सत्यने जे समजावे मेमे करी, बुद्धिसागर सत्य साबु मानवा उलट धरी.
शुद्धस्वरूपप्रेममां सर्वनी ऐक्यता -
शुं भक्तिनां भाइ नाणां, ए राग. मधी लागे जगत सह प्यारी,
मुज आतम सम जीव धारु रे; प्रेमथी.
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॥ १ ॥
॥ ४ ॥