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२१० मोह मृकी जागीए घट सन्तसेवा कीजीए; बुद्धिसागर तत्त्व समनी आत्मभावे रीझीए.
॥६॥
समाधिस्वरूप.
मान मायाना करनारा रे-ए राग. करो सत्य स्वरुप समाधि रे, तेथी टळशे उपाधिने व्याधि; योग अष्टांगने शुद्ध साधि रे, करो दूरे सकल दुःख आधि. चित्त चंचलता दूर ज जावे, अनहद आनंद थावे; सर्व संकल्पनी सिद्धि खरेखर, रुद्धि सिद्धि सह पावे रे. करो. १ आतमना ज्ञानथी दुःख टळे छे, सिद्ध स्वरूप मळे छे; ब्रह्मा ने विष्णु, शंकर ने शक्ति, आतममां सर्व भळे छे रे. क०२ यौगिक विद्याभ्यास कर्याथी, विषयविकारो टळे छ; ज्ञानीना योग्य छे यौगिक विद्या, समज शिष्योने फळे छे रे. क. ३ क्रियमाण वळी संचित कर्मों, आत्मसमाधि हरे छे; अनंत शक्तिओ प्रगटे छे घटमां, परम स्वरूप वरेछे रे. क. ४ अन्तरनी शक्तियो भव्य जगावों, लेजो मानवभव ल्हावो; बुद्धिसागर घट सत्य समाधि, मुमुच जन झट पावो रे. क० ५
" साधु "
छप्पय छंद. सेवो साधु सत्य खरा जे आतम ज्ञानी, चलवे नहि पाखंड हृदयमां निराभिमानी; वदे सदा परमार्थ स्वार्थनी दिल नहि फांसी, विषयविषना त्याग मदा जे धर्मविलासी;
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