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मति श्रुत अवधि मनःपर्यव केवल भारी, स्वपरप्रकाशक ज्ञाने शासन चाले, ज्ञाने भवि प्राणी जीवदयाने पाले, णमो बंभीलीवीए आये भगवइ भाख्यु, ज्ञानीए ज्ञानतणुं फल घटमां चाख्यु, भवि ज्ञान न निन्दो ज्ञानि निन्दा वारो, गुरुगमथी ज्ञान ग्रहीने चेतन तारो. महिमा छे अपरंपार ज्ञाननो साचो, निशदिन भवि प्राणी ज्ञानाभ्यासे राचो, जिनवाणी श्रुत आधार हाल छे जाणो, श्रुत ज्ञान ग्रहीने शाश्वतपद मन आणो. जाणो नव तत्त्वादिक जिनवरनी वाणी समजी सम्यग् भवजलधि तरशो प्राणा, नमो ज्ञान सदा दिनमाणि जेवं उपकारी, प्रणमुं भावे हुँ ज्ञान सदा जयकारीः
८ चारित्र पदस्तुतिः चल चेतन जिनमन्दिर जइए-ए राग ॥ चरण करण धारी मुनिवन्दु मोक्षे संचरवा रंक जनो पण चरण ग्रहे छे मुक्तिवधु वरवा जीनजी महा भाग्य, धन्य ते वीतराग, विज्ञानी पण दीक्षा लेवे भवजलधि तरवा. चरण० ॥१॥ धन्य ते चारित्र, होय भव्य पवित्र, इन्द्रादिक पण मुनिने वंदे कर्म कटक हरवा. चरण ॥२॥
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