________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
१८०
दया क्षमा के साथ छे ते समजशो दील मानवी; चंद्र त्यां उद्योत वळी परकाश त्यां होवे रवि. ॥४॥ तजी क्षमाने मुनिवर क्रोधे नीचा पडिया, क्षमा धरीने नीचजना पण स्वर्गे चडिया; क्षमा विना शुं तेज क्षमावण छे अंधार. क्षण क्षण मांहि क्रोध करे त्यां कदी न सारु, पगथीयुं छे मोक्षनुं शुभ क्षमा सदा सुखकार छे; बुद्धिसागर क्षमा धर्याथी धन्य धन्य अवतार छे. ॥५॥
लोभस्वरूप
छप्पयछंद. लोभतणो नहि थोभ लोभथी कुमति जागे, लोभे लक्षण जाय लोभथी लज्जा त्यागे; लोभे हिंसक थाय, लोभथी जुटुं बोले. लोभे चोरी थाय, लोभथी कूड़े तोल, लोभे पापो सहु करेछे, लोभे जन ज्यां त्यां फरे; बुद्धिसागर लोभथी जीव रंकने पण करगरे. ॥१॥ लोभे छे अन्याय, लोभथी समता नासे, लोभे शान्ति दूर, लोभथी दया न पास; लोभे नहि परमार्थ, लोभथी सत्य न धारे. लोभे प्राणी तात भ्रातने सहेजे मारे; लोभ अहो आ जग विष सहु, महा पाप शिरदार छ, बुद्धिसागर लोभ नहि जस धन्य तस अवतार छे. ।।२।। लोभे मीटुं वेण, लोभथी भुंडी बुद्धि, लोभे कंजुस होय लोभथी कदी न शुद्धि;
For Private And Personal Use Only