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॥ २ ॥
देवसेवा.
भुजंगी छन्दः बाने चित्तहुं निर्मठे धर्मवाळु, टळे मोह वासीत जे चित्त काळु; ग्रहेथी मळे दीलमां शर्म मेवो, अहो देव एवो सदा भव्य सेवो. सदा राग ने द्वेष विहीन देवा, करो सिद्ध सर्वज्ञनी सत्य सेवा; भजे जेहने सर्व नासे कुटेवो, अहो देव एवो सदा भव्य सेवो. सदा ज्ञानथी सत्यनो जेह वादी. कॅह्यां तत्त्व साचां सदा जे अनादि अहो वीर सर्वज्ञ छे देव तेवो, अहो देव एवो सदा भव्य सेवो. नहीं शस्त्र हस्ते नहीं संग रामा, कहे धीनिधि वीत छे लोभ कामा; अहो जेहमां केवलज्ञान दीवो, अहो देव एवो सदा भव्य सेवो.
आत्माने उपदेश.
भुजंगी छंद. अरे आतमा चित्तमां जो विचारी, धरी जन्मने दुर्मति शुं वधारी, प्रभुए कह्यो धर्म चित्ते न धार्यो, प्रमादी अरे काळ तें फोक हार्यो.
॥३॥
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