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आळने चढाववामां दोष न जराय गणे; चाडी अने चुगलीमां निशदिन प्यार छे, निन्दाथी मालन मन मायानुं तो गृह होय कृतघ्न विश्वासघात कृत्यमां तैयार छे. विनयथी वैर हाय विवकथी झेर होय; इर्ष्या जूठ लोभ अने कपट भण्डार छे, विचार उच्चार अने आचारमा वक्र होय; धीनिधि कहे छे एवा दुर्जन अपार छे.
॥२॥
सजनलक्षण.
मनहरछन्द. सद्गुण देखनार विवेकथी पेखनार; गुणिजन देखी जेनुं चित्त हरखाय छे, विचार उच्चार अने आचारमा सत्य होय; पारकानुं बुरु देखी मनहुँ दुःखाय छे. पर उपकारमांहि राग होय निशदिन देवगुरु सेवनमा चित्त हि सदाय छे, दोषदृष्टि नाह लेश मनमां जरा न कलेश; सज्जन सुगुण नर जग वखणाय छे. ॥१॥ सारु सहु जीवनुं सदा जे इच्छे चित्तमांहि; प्राणांतेऽपि निन्दा करे नहि महा भाग्य छ, दयाळु दातार शीलवंत सत्य कथनार; हेय ज्ञेय उपादेय जाणवामां राग छे. अदेखाइ आळ चाडी चुगलीथी दूर होय; अहो अपकारिपर जेनो उपकार छ,
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