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बुद्धिसागर सापेक्षे सहु सुधरे, चेतनज्ञाने व्हालो सजन वीरजो.
मुधारा. ॥८॥
भक्ति .
रुचिराछन्द. श्री संखेश्वर पार्श्वजिनेश्वर, तब महिमा जगमां भारी, विघ्न विदारण मंगल कारण, जय जय जगमा उपकारी; ध्यान करीने प्रेमे हारूं, भक्ति महिमा गान करूं, वीर प्रभुमां गौतम जेवी, भक्तिथी भवपार तरूं. ॥१॥ ज्यां नहि भक्ति त्यां शुं श्रद्धा, भाक्तथी छे भाव खरो, भक्ति विण मोळी छे सेवा, प्रेमे भक्ति चित्त धरो; भक्ति विण साधन शुं साधे, भक्तिथी क्षणमा सुधरो, भक्तिथी निर्मल छे मनटुं, भक्ति सहित भवपार तरो ॥ २ ॥ सुरस विना तो लाहुं शानो, मीठा वीण भोजन शान; श्रद्धा विण धर्मज होय शानो, राग विना फोगट गाणुं, ज्ञान विना गुरु होयज शानो; मान विना जेवू खाणुं, भक्ति विण जीवन छे तवं, समजो नहि सन्तो छान. ॥३॥ भक्ति विण निर्मलता शानी, भक्ति विण धट अन्धारु, भक्ति विण चेतन नहि तरशे, भक्तिथी जीवन सारूं; सुदेव गुरुनी भक्ति करवी, भक्ति जीवन बहु प्यारं, भक्ति शक्ति देवी साची, भावे भक्ति दील धारूं. ॥४॥ भक्तिथी भणतर छे साचं, भक्ति विण भणतर काचं, भक्ति विण लूखी आचरणा, भक्तिना रसमां राचु; वीर प्रभुनी भक्ति साची, भक्तिथी पापो सहु गळे,
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