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( २७ )
॥ अथद्वितीया ||
भीताय॒ नाध॑मानाय॒ ऋष॑ये स॒प्त व॑ये ।
मा॒याभि॑रश्विनायुर्वं वृ॒क्षंसं च विचांचथः ॥ २ ॥ ६ ॥
भावार्थ:-- हे वनस्पतिके विकाररूपपेटी ! तूं स्त्रीकी योनि कि तरह चौडी हो जा, जैसें स्त्रीकी योनि संतानके जननेके समय में चौडी हो जाती है, तैसें तूं भी हो जा. हे अश्विनौ ! तुम सतवधिकी विनती सुनकर मूल सप्तवधिको छुडावो ! निकलत हुए डरतेको, और निकलना वांछतेको, हे अश्विनौ ? ऐसे मूझ सप्तवधिको इस पेटिसें निकालनेको आओ ||
अब वाचक वर्गो ? देखो कि, यह परमेश्वरकी कैसी भक्त वत्सलता है कि, पेटीमें बैठे अपने भक्त सप्तवधि ऋषिको कैसी ज्ञानरसकी भरी ऋचायों प्रदान करी कि,
जिनके पढनेसें अश्विनौने आकर तिसको पेटी से बहार काढा. और तिस ऋषिने भतीजोंके भयसें रात्रिको छाना नोकसके स्वभार्यासें संपूर्ण रात्रिमें विषयभोग करके सवेरेको फिर पेटीमें प्रवेश कर जाना । वाह ? ? ? बलिहारि है, ऐसे ऋषि महात्मायोंकी कि जिनकी अति दुष्कर तपस्यासें तुष्टमान होके पेटीमें बैठको दो ऋचायों प्रदान करी जिससे सप्तवधि निहाल हो गया ? पाठकवर्गो ? परमेश्वर विना ऐसा दयालु कौन होवे ? कोइभी नहीं इस वास्तेही तो पंडित लोक ऋगवेदको प्रधानवेद कहते हैं कि, जिसमें ऐसा २ अत्यद्भुत ज्ञान भरा है ? ? ? ॥
तथा ऋ. सं. अष्टक ६ अध्याय ६ वर्ग १४ में लिखा है । अतीतकाल में अत्रि ऋषिकी पुत्री अपालानामा ब्रह्मवादिनी
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