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( २५ )
॥ अथ त्रयोविंशी ||
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नसार्थकस्यकिकितेजना सोलोधंन॑यन्ति॒ पशु॒मन्य॑मानाः || नावा॑जिनं॑ वा॒जिनः॑ हासयन्ति॒ नग॑द॒भं पु॒रो अश्वा॑न्नयन्ति ॥ २३ ॥
॥ अध चतुर्विंशी ॥
इम इ॑न्द्र भर॒तस्य॑ पु॒त्राअ॑पपि॒त्वंचि कितुर्नप्र॑पि॒त्वम् । हिन्वन्त्यश्व॒मरु॑णं न नित्यं॑ ज्यावाजं परिणयन्त्याजौ ॥२४॥ ॥ ऋ. सं. अ. ३ ॥
इन चारों ऋचायों में यह भावार्थ है कि, विश्वामित्रने शाप देते हुए, प्रथमार्द्धक ऋचायें तो आत्मरक्षा करी है; आगे शाप दिया. तूं पतत् होये, तूं मरजावे, इत्यादि फिर इंद्रको संबोधन करी कि, हे इंद्र ? मेरा शत्रु मेरे मंत्रकी शक्तिसें महत होके पडो, और मुखसेफेन ( झाग ) वमन करो । प्रथम मेरा तप क्षय न हो जीवे इस वास्ते शाप देनेसे हटकर मौन कर बैठे विश्वामित्र को वशिष्ठके पुरुष बांध पकडके ले चले, तब विश्वामित्र feast कहता है, हे लोको ? नाश करनेवाले वि
मित्र मंत्रोंका सामर्थ्य तुम नही जानते हो ! शाप देनेसें मेरा सप क्षय न हो जाये, ऐसें विचारके मुझे मौनवंतको पशुसमान जाके बांधके इष्ट स्थानमें ले जाते हो : ऐसें स्वसामर्थ्य दिल कहता है कि, क्या वशिष्ठ मेरी बराबरी कर सकता है ? तिसके साथ स्पर्द्धा करनेसें विद्वान् लोक मेरी हांसी न करेंगे ? इस वास्ते मैं वशिष्ठके साथ स्पर्द्धा नही करता हुं । हे इंद्र ? भरतके वंशवंशके होके, क्या विश्वामित्र इनके साथ स्पर्द्धा करेंगे ? येह तो विचारे ब्राह्मण ही है ।।
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