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अन्नाण कोह मयमाणा। लोह माया रइ अरइय निदा ॥ सोग अलिय वयणाई। चोरिया मच्छर भयाई पाणिवह पेमकीडा। पसंगहासाय जर सइय दोसा ॥ अठारस विपणा। नमामि देवाय देवत्तं ॥२॥
आ उक्त अष्टादश दोष रहित होय तेने देव तरीके जाणवा. अने तेमनुं कथन सत्य जाणवू. अने तेमनी. आज्ञा प्रमाण करवी. कैवल्य ज्ञान थतां मुक्ति स्थान करतलनी पेठे प्रत्यक्ष भासे छे. ते मुक्तिनी प्राप्ति धर्म ध्यान अने शुकल ध्यान अवलंबवाथो थाय छे. कर्मनो नाश थवाथी मुक्ति थाय छे. क्षीण कर्मा जीव शाश्वत स्थानमा गति करे छे. यतः
श्लोक. क्षीणकर्मा ततो जीवः स्वदेहाकृति मुद्वहन् । उर्चस्वभावतो याति वन्हिज्वालाकलापवत् ॥१॥ लोकाग्रं प्राप्य तत्रासौ स्थिरता मवलंबते । गतिहेतो रभावेन धर्मस्य परतोगतिः ॥२॥
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