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चलताथी वास्तविक फल प्राप्त यतुं नथी.
प्रतिक्रमण, सूत्र, जीव विचार, नवतत्व, व्याकरण, न्यायनो अभ्यास करतां पण चंचलताथी यथार्थ अवबोध यतो नथी. सांसारिक कार्यमां पण चंचलताथी यथायोग्य कार्यनी समाप्ति थती नथी, तो पछी धर्मकार्यमां चंचलता करवाथी आत्यसाधक महापुरुष बनी शकातुं नथी, प्रतिक्रमण विगेरे क्रियामा थती चांचल्यता वारवी, मननी एकाग्रता करवाथी चांचल्यता टळे छे. दररोज अरिहंत बोली त्रण चार नवकारवाळीओगणी जइए, अने पछी मनमां चिंतवीएफेमें आटला वर्ष सुधी नव 'कारमंत्र स्मरण कर्यो, पण ते इष्टमद थयो नहीं, एम शंका ‘करीए ते युक्ति युक्त नथी, कारणके अरिहंत ए शब्दनो भावार्थ समजवो जोइए. श्रद्धा, भक्ति, विधि, स्थिरताथी अरिहंत ए महामैत्रनुं स्मरण करतां, घणा गुणनी प्राप्ति थायछे, अने घणां कर्म क्षय पामेछे, एमां कंइ शक नथी, जी मुक्तिनी अभिलाषा होय तो दरेक क्रियाओ स्थिर चित्तथी करवी, ते माटे महात्मा पुरुष कहेछे के जब लग आवे नहीं मन ठाम तब लग कष्ट क्रिया सवि सूनी ज्यु झांखर चित्रांम ।। जब लग आवे. जब तक मन स्थिर थतुं नथी, त्यां सुधी क्रिया सर्व शून्य जाणवी, झांखर भूमिमां जेम चित्रामण पड़े नहीं, तेम स्थिर मन विना कष्ट क्रिया पण यथेष्टफलपदा गती नथी, आत्मसाधक महापुरुषो मन स्थिर करवा अनेक प्रकारना प्रयत्न करे छे, एकान्त स्थान सेवे छे, विषयोने वि.
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