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आत्माने सिंचन कर के जेथी अत स्वगुण प्रगटावा शाश्वत
पद पामी, शकाय.
समभाव. मोक्षपद मद समभावने आत्म साधक महापुरुषे धारण करवो, ज्यां सुधी समभाव आव्यो नथी, त्यां सुधी मुक्ति वेगळी छे. रागद्वेष मोहमायानुं जोर हठवाथी, अने जड चेतननुं लक्षण जाणवाथी, अने जड वस्तुने पर जाणवाथी, शत्रु मित्र उपर थती रागद्वेष बुद्धि क्षय पामे छे. अने कनक पाषाण तृण अने माणे उपर समभावदृष्टि रहे छे. तृण पण पुद्गल छे, अने माण पण परवस्तु छे, ते वस्तु छे, ते वस्तुतः मारी वस्तु नथी तो तेना उपर केम तृण हलकुं अने मणि मोडं एवी बुद्धि धारण करूं ? अलबत एम कर जोइए नही, एम मनमां निश्चय थयाथी, समभाव प्रगट थाय छे. ए गुण मगट थाय बाद सहजसमाधि उत्पन्न थायछे, ए अगीयारमुं पगथीयुं आत्मसाधक महापुरुषाने अंगीकार करवा योग्य छे.
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आत्मसाधक महापुरुषाने मन चंचलता त्याग रूप बारमुं पगथीयुं धर्मप्रासादारोहण माटे छे. मोक्ष प्राप्ति माटे कराती दरेक क्रियामां चांचल्यता त्यागवी. प्रभुनी पूजा करवा सारु देरासरमां जइए, त्यां हाहुश करीने गरबड सरवड मचावी पूजा करीए, पूजा करतां चित्त कं भटके, नवकार वाळी गणतां चित्त अन्यत्र होय, शुं गणुं हुं, बराबर होय नही, ए सर्व चंचलतानुं कारण छे. चित्तनी चं
तेनुं पण भान पोताने
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