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करी. गुरुए कहां के एक समये एक उपयोग होय, एकी वरखते खातो होय, बोलतो होय, पगे चालतो होय, तोपण एक समर्थ एक क्रियानो उपयोग होय, समयनो काल घणो सूक्ष्म छे, तेनी खबर पडे नहीं. एक "क" एटलो शब्द बोलतां बोलतां असंख्याता समय थइ जाय, माटे एक समयमां बे उपयोग कहेवाय नहीं, आ प्रमाणे गुरुए युक्तिथी समजाव्यो. पण तेणे मान्युं नहीं, त्यारे गुरु संघ बाहिर कर्यो. पश्चात् ते गंगशिष्य राजगृही नगरीमां आया, मणि नामक यक्ष भुवनमां उतर्या, त्यां लोको धर्मोपदेश सांभळवा आव्या, तेमनी आगळ वे क्रियानो युग: पत् अनुभव थाय छे, एम कहेवा लाग्या, त्यारे यक्ष मोगर उपाडी कोप देखाडी तेनी तर्जना करी अने कछु के आज उद्यानमां समवसरेला श्री वीर प्रभुना मुखथी एम सांभळ्युं छे के, यत् क्रियाद्वयस्य अनुभवो युगपन्न भवतीति समय सूक्ष्मत्वेन युगपदनुभवाभिमानो भ्रम एवेति युगपत् एक समयावच्छेदेन बे क्रियानो अनुभव थतो नथी. समयनी सूक्ष्मता छे माटे युगपत् बे क्रियानो अनुभव छे, एम अभिमान करवो ते भ्रम छे, शुं तुं वीर भगवान् थकी पण अधिक ज्ञानी छे ? यक्षे प्रतिबोध पाडयो. इति पंचम निन्हव वृत्तांत. ॥ ५ ॥ समाप्तः
अथ अथ षष्ट निन्हवट्टत्तान्तः - श्री वीर भगवान् निर्वाण पाम्या बाद पांचसें चोमालीश १४४ वर्षे अंतरिजिका नगमां बल श्री राजा राज्य करे छे, त्यां पोदशाल नामा परि भाजक छे, तेणे पेटे लोह पद धारण कर्यो छे, हस्तमां जंबु
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