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(१६४) श्रीयशोविजयजीए करेली आनन्दघनजीनी स्तुतिरूप अष्टपदी.
पद पहेलुं.
(राग कानडो.) मारग चलत चलत गात, आनन्दघन प्यारे॥ रहत आनन्द भरपूर
मा० ॥ ताको सरूप भूप त्रिहुं लोकथें न्यारो बरखत मुखपर नूर
॥१॥ सुमति सखीके संग, नितनित दोरत ॥
कबहु न होतही दूर जशविजय कहे सुनो आनन्दधन, हमतुम मिले हजूर
॥२॥ इति
पद बीजं. आनन्दघनको आनन्द सुजशही गावत ॥ रहत आनन्द सुमता संग
आनं० ॥ सुमति सखी ओर न बल आनन्दधन, मिल रहे गंगतरंग
आनं० ॥१॥ मन मंजन करके निर्मल कीयोहे चित्त,
तापर लगायो हे अविहड रंग ॥ जसविजय कहे सुनतही देखो,
सुख पायो बोत अभंग आनं० ॥२॥
पद त्रीखं.
(राग नायकी ताल चंपक.) आनन्द कोउ नहीं पावे, जोइ पावे सोइ आनन्दघन ध्यावे ॥ आ० ॥ आनन्द कोंन रूप कोंन आनन्दघन, आनन्दगुण कोन लखावे ॥ आ० ॥१॥ सहज संतोष आनन्दगुण प्रगटत, सब दुविधा मिट जावे ॥ जस कहे सोही आनन्दधन पावत, अंतरज्योत जगावे ॥ आ० ॥२॥
पद चोथु.
(राग ताल चंपक.) आनन्द ठोर ठोर नहीं पाया-आनन्द आनन्दमें समाया ॥ आ०॥ रतिअरति दोउ संग लीय वरजित, अरथने हाथ तपाया. ॥ आनन्द ॥१॥
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