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अध्यात्मगीता.
जीव । स्व पर विवेचन करतां थाये लाभ सदीव ॥ निश्चे ने व्यवहारे विचरे जे मुनिराज । भवसागरना तारण निर्भय तेह जहाज ॥४६॥
अर्थ:-नय निक्षेप प्रमाणे जाणे जीवा. जीव. एटले नय कहतां नैगमादि सात नये करी, अने निक्षेप कहतां नामादि. चार निक्षेपे करी, जाणे जीवाजीव एटले जाणे जीवाजीव कहतां जीव अजीव रूप नव तत्व षट् द्रव्यनो स्वरूप प्रते जाणे तेहने साधु श्रावकपणो जाणवो. त्यारे शिष्य कहे-नैगमादि सात नये करी, अने नामादि चार निक्षेपे करी जीव अजीव रूप नव तत्व
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