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अध्यात्मगीता.
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अर्थः- समभिरूढ नये निरावर्णी ज्ञानादिक गुण मुख्य. एटले समभिरूढ नयनें मते शुक्ल ध्यान रूप अग्निये करी घाति कर्मने क्षये, निरावण कहेतां कर्मरूप आवरणने अभावे, ज्ञानादिक अनंत गुण रूप लक्ष्मी मते प्रगटे. अने क्षायिक अनंत चतुष्टय भोगी मुग्ध अलक्ष. एटले क्षायिक अनंत चतुष्टय कहेतां अनंतज्ञान, अनंतदर्शन, अनंत चारित्र, अनंतवीर्य, ए चार अनंत चतुष्टयरूप क्षायिक भावे प्रगटे. अने भोगी कहेतां तेहना भोगने विषे सदा काल निरंतर पणे जेहनो उपयोग प्रतें वर्ते छे. अने मुग्ध कहेतां जे भोला लोक, अने अलक्ष कहतां तेहना लख्या में ए स्वरूप न आवे, एवंभूते
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