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अध्यात्मगीता
दुविध व्यवहार नय वस्तु विहचे । अशुद्ध वलि शुद्ध भासन प्रपंचे ॥५॥
अर्थः-- संग्रहे एक आया वखाण्यो कहेतां संग्रह नयना मतवालो सत्तानो ग्रहण करे छे. एटले सर्व जीव सत्ताये एक रूप सरीखा छे. माटे संग्रह नयने मते सर्व जीव सत्ताये एक रूप जाणवा अने नैगमे अंशथी जे प्रमाण्यो. एटले नैगमै अंसथी जे प्रमाण्यो कहेतां, नैगम नयना मतवाली एक अंश ग्र हीने सर्व वस्तुनो प्रमाण प्रते करे छे. माटे सर्व जीवना आठ चक प्रदेश, सदा काल सिद्ध समान निरावरणपणे वर्ते छे. एटले नैगम नयने मते अंशथकी सर्व जीव एक रूप
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