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आगमसार. २०३ करयो इहां सहाय अति, दुर्गदास शुभचित्त । समजावन निज मित्रकुं, कीनो ग्रंथ पवित्त॥१२ धमित्र जिन धर्म रत, भविजन समकितवंत । शुद्ध अमरपद ओलखण, ग्रंथ कियो गुणवंत॥१३ तत्त्वज्ञानमय ग्रंथ यह, जोवे बालाबोध । निजपर सत्ता सब लिखे, श्रोता लहे प्रबोध॥१४ ता कारण देवचंदमुनि, कीनो भापा ग्रंथ । भणशे गुणशे जे भविक, लहेशे ते शिवपंथ।१५ कथक शुद्ध श्रोतारुचि, मिलजो एह संयोग । तत्त्वज्ञान श्रद्धा सहित,वलीय काय निरोग।।१६ परमागमसुं राचजो, लहेशो परमानंद । धर्मराग गुरु धर्मसौं, धरजो ए सुखठेद ॥१७॥
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