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भ्यास, संस्कृत-प्राकृतादि कठीन भाषाओंका अभ्यास, व्याकरण-- न्याय-नाटक-आदि कठीन विषयोंका अभ्यास अस्त हो गया है । जो कुछ भी देखने में आता है वह भी अमुकांशमें और अमुक समुदायमें । जब शास्त्राभ्यास की ही एसी दशा है तब शास्त्ररचना, ग्रंथरचना की आशा रखना ही व्यर्थ है ।
फीर भी परमपूज्य प्रातःस्मरणीय आबाल-ब्रह्मचारी जगत्पूज्य भट्टारकाचार्य स्वसमयकोविद सर्वतन्त्र--स्वतन्त्र श्रीमद्विजयनेमिसूरीश्वरजी महाराजश्री के समुदायमें अभ्यासप्रणालिका प्राचीन-पद्धति मुताबिक चालु है और उसी परम्पराके कारण प्राचीन ग्रन्थोंका और प्राचीन विषयोंका अभ्यास आज दीन तक चाल है।
प्रायः उपर्युक्त समुदायकी विशेष प्रवृत्ति प्राचीन ग्रंथ पठनपाठन और ग्रन्थरचना की है । सूरिजी के समुदाय में जो प्रणालिका चालु है इस के लिये भूरीशः धन्यवाद दीया जाता है।
इतना प्रासंगिक लिखने के बाद अब ग्रन्थ के विषय में लिखना जरूरी है अतः-" जो विषय ग्रन्थमें लिया है वह विषय खास करके जैन समाजकी दार्शनिक रचना समजनेके लिये अतीव उपयोगी और परिपूर्ण है।"
यद्यपि यह ग्रन्थ का विषय कोई नूतन नहीं है क्यं की इस विपय के बहुतसे ग्रन्थ प्राचीन कालसे उपलब्ध है और बहूतसे पूर्व विद्धान् महर्षिओने इस विषय के अनूपम ग्रन्थ लिखे है ।