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________________ था। उस मंदिर की भित्तियों के बाहर की ओर तीन रथिकाएं हैं। उनमें नृसिंह वराह-विष्णुमुखी स्थापित हैं। उनकी रचना रूप मण्डन ग्रंथ में वरिणत लक्षणों के अनुसार ही की गई है। एक अष्टभुजी मूर्ति भगवान् वैकुण्ठ की है। दूसरी द्वादशभुजी मूर्ति भगवान् अनंत की है और तीसरी सोलह हाथों वाली मूर्ति त्रैलोक्य मोहन की है इनके लक्षण सूत्रधार भएडन ने अपने रूपमएडन ग्रंथ के तीसरे अध्याय में (श्लोक ५२-६२ दिये हैं।' इनके अतिरिक्त मुत्रधार मण्डन ने और भी कितनी ही ब्राह्मण धर्म संबंधी देव मूर्तियां बनाई थीं । उपलब्ध मूर्तियों की चौकियों पर लेख उस्कोण हैं। जिन में मूर्ति का नाम राणा कुभा का नाम और सं. १५१५-१५१६ की निर्माण तिथि का उल्लेख है । ये मूर्तियां लगभग कुभलगढ़ दुर्ग के साथ ही बनाई गई थीं। तब तक दुर्ग में किसी मंदिर का निर्माण नहीं हुप्रा था, अतएव वे एक वट वृक्ष के नीचे स्मारिन कर दो गई या । इस प्रकार को छः मातृका मूर्तियां उदयपुर के संग्रहालय में विद्यमान है जिन पर इस प्रकार लेख हैं "स्वस्ति श्री सं०. १५१५ वर्षे तथा शाके १३८० प्रवत्तमा । फाल्गुन शुदि १२ बुधे पुष्य नक्षत्रे श्री कुभल मेरु महादुर्गे महाराजाधिराज श्री कुभकरणं पृथ्वी पुरन्दरेण श्री ब्रह्माणी मूर्तिः अस्मिन् वटे स्थापिता | शुभं भवत ।। श्री।।" . इसी प्रकार के लेख माहेश्वरी, कौमारी, वैष्णवी, वाराही और ऐन्द्री मूर्तियों की चरण चौकियों पर भी हैं। इसी प्रकार चतुर्विशति वर्ग की विषणु मूर्तियों का भी रूप मण्डन में (अध्याय ३, श्लोक १०-२२) विशद वर्णन पाया है। उनमें से १२ मूर्तियां कुभलगढ़ से प्राप्त हो चुकी हैं जो इस समय उदयपुर के संग्रहालय में सुरक्षित हैं। ये मूर्तियां भगवान विष्णु के संकर्षण, माधव, मधुसूदन, प्रोक्षज, प्रद्युम्न, केशव, पुरुषोत्तम, अनिरुद्ध, वासुदेव, दामोदर, जनार्दन और गोविन्द रूप की हैं। इनकी चौकियों पर इस प्रकार लेख हैं "स० १५१६ वर्षे शाके १३८२ वत्त माने माश्विन शुद्ध ३ श्री कुभमेरी महाराज श्री कुभकरन वटे संकर्षण मूर्ति संस्थापिता शुभं भवतु ॥२" इन सब मूर्तियों की रचना रूप मण्डन ग्रन्थ में वणित लक्षणों के अनुसार यथार्थत: हुई है। स्पष्ट है कि सूत्रधार मण्डन शास्त्र और प्रयोग दोनों के निपुण अभ्यासी थे । शिल्प शास्त्र में वे जिन लक्षणों का उल्लेख करते थे उन्हीं के अनुसार स्वयं या अपने शिष्यों द्वारा देव मूर्तियों की रचना भी कराते जाते थे । किसी समय अपने देश में सूत्रधार मण्डन जैसे सहस्रों की संख्या में लब्ध कीर्ति स्थपति और वास्तु विद्या चार्य हुए । एलोरा के कैलाश मन्दिर, खजुराहो के कंदरिया महादेव, भुवनेश्वर के लिङ्गराज, तंजोर के बहदीश्वर, कोणार्क के सूर्यदेउल आदि एक से एक भव्य देव प्रासादों के निर्माण का श्रेय जिन शिल्पाचार्यों की कल्पना में स्फुरित हुप्रा और जिन्होंने अपने कार्य कौशल से उन्हें मूर्त रूप दिया वे सचमुच धन्य थे और उन्होंने ही भारतीय संस्कृति के मार्ग-दर्शन का शाश्वत कार्य किया । १-दे० रनचन्द्र अग्रवाल, राजस्थान की प्राचीन मूर्ति कला में महाविष्णु संबंधी कुछ पत्रिकाएं, शोधपत्रिका, उदयपुर, भाग ६, अंक १ (पौष, वि० सं० २०१४ ) पृ०६, १४, १७ । २-रत्लवन्द्र अग्रवाल. रूप मण्डन तथा कुभलगढ़ से प्राप्त महत्वपूर्ण प्रस्तर प्रतिमाएं, शोध पत्रिका, भाग ८ अंक ३ (चैत्र, वि० सं० २०१४), पृ०१-१२
SR No.008426
Book TitlePrasad Mandana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhagwandas Jain
PublisherBhagwandas Jain
Publication Year1986
Total Pages290
LanguageGujarati, Sanskrit
ClassificationBook_Gujarati, Art, & Culture
File Size6 MB
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