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અનેકાંત અમૃત भी तरह नहीं जान सकता है।
वह इस प्रकार-ज्ञान आत्मा का लक्षण है और वह अखण्ड प्रतिभासमय सभी जीवों में सामान्यरुप से पाया जाने वाला महासामान्यरुप है। और व महासामान्य ज्ञानमय अनन्त विशेषों में व्याप्त है। और वे ज्ञान विशेष विषयभूत, ज्ञेयभूत अनन्त द्रव्य-पर्यायों के ज्ञायक-ग्राहक-जाननेवाले हैं। अखण्ड एक प्रतिभासमय जो महासामान्य उस स्वभाववाले आत्मा को जो वह प्रत्यक्ष नहीं जानता, तो वह पुरुष प्रतिभासमय महासामान्य से व्याप्त जो अनन्त ज्ञानविशेष, उनके विषयभूत जो अनन्त द्रव्य-पर्यायें, उन्हें कैसे जान सकता है ? किसी भी प्रकार नहीं जान सकता।
अथ एतदायातम्-य: आत्मानं न जानाति स सर्वं न जानातीति। तथा चोक्तम्
"एको भाव: सर्वभावस्वभाव: सर्वे भावा एकभावस्वभावाः।
एको भावस्तत्त्वतो येन बुद्ध, सर्वे भावास्तत्त्वतस्तेन बुद्धाः॥" अत्राह शिष्य :- आत्मपरिज्ञाने सति सर्वपरिज्ञानं भवतीत्यत्र व्याख्यातं, तत्र तु पूर्वसूत्रे भणितं सर्वपरिज्ञाने सत्यात्मपरिज्ञानं भवतीति । यद्येवं तर्हि छद्मस्थानां सर्वपरिज्ञानं नास्त्यात्मपरिज्ञानं कथं भविष्यति ? आत्मपरिज्ञानाभावे चात्मभावना कथं ? तदभावे केवलज्ञानोत्पत्तिर्नास्तीति ।
परिहारमाह-परोक्षप्रमाणभूतश्रुतज्ञानेन सर्वपदार्था ज्ञायन्ते । कथमिति चेत्लोकालोकादिपरिज्ञानं व्याप्तिज्ञानरूपेण छद्मस्थानामपि विद्यते, तच्च व्याप्तिज्ञानं परोक्षकारेण केवलज्ञानविषयग्राहकं कथंचिदात्मैव भण्यते । अथवा स्वसंवेदनज्ञानेनात्मा ज्ञायते, ततश्च भावना क्रियते, तया रागादिविकल्परहितस्वसंवेदनभावनया केवलज्ञानंच जायते-इति नास्ति दोषः ॥ ५०॥ अथ क्रम प्रवृत्तज्ञानेन सर्वज्ञो न भवतीति व्यवस्थापयति
उप्पञ्जदिजदिणाणं कमसो अढे पडुच्च णाणिस्स। (५०) तं व हवदि णिच्चं ण खाइगं णेव सव्वगदं ॥ ५१।।
___इससे यह निश्चित हुआ कि जो आत्मा को नहीं जानता वह सर्व को नहीं जानता। वैसा ही कहा है
"एक भाव सर्वभाव-स्वभाववाला है, सभीभावएकभाव-स्वभाववाले हैं; अत: जिसके द्वारा एकभाव वास्तविकरुप से जान लिया गया है, उसके द्वारा सभी भाव वास्तविकरुप से जान लिये गये हैं।"