________________
Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates
समयसार-कलश
[भगवान् श्री कुन्द-कुन्द
भावार्थ इस प्रकार है - जीवद्रव्य अनादिसे कर्मसंयोगके साथ एकपर्यायरूप चला आया है, विभावरूप परिणमा है। इस प्रकार एक बंधपर्यायको अंगीकार करिये, द्रप्रस्वरूपका पक्ष न करिये तब जीव बँधा है; एक पक्ष इस प्रकार है । [तथा] दूसरा पक्ष-[अपरस्य] द्रव्यार्थिकनयका पक्ष करनेपर [न] नहीं बँधा है। भावार्थ इस प्रकार है - जीवद्रव्य अनादिनिधन चेतनालक्षण है, इस प्रकार द्रव्यमात्रका पक्ष करनेपर जीवद्रव्य बँधा तो नहीं है, सदा अपने स्वरूप है, क्योंकि कोई भी द्रव्य किसी अन्य द्रव्य-गुण-पर्यायरूप नहीं परिणमता है, सभी द्रव्य अपने स्वरूपरूप परिणमते हैं। “यः तत्त्ववेदी'' जो कोई शुद्ध चेतनमात्र जीवके स्वरूपका अनुभवनशील है जीव "च्युतपक्षपातः'' वह जीव पक्षपातसे रहित है। भावार्थ इस प्रकार है – एक वस्तुकी अनेकरूप कल्पना की जाती है उसका नाम पक्षपात कहा जाता है, इसलिए वस्तुमात्रका स्वाद आनेपर कल्पनाबुद्धि सहज ही मिटती है। "तस्य चित् चित् एव अस्ति'' -[ तस्य] शुद्ध स्वरूपको अनुभवता है उसको [ चित्] चैतन्यवस्तु [ चित् एव अस्ति] चेतनामात्र वस्तु है ऐसा प्रत्यक्षपने स्वाद आता है।। २५-७००
[उपजाति] एकस्य मूढो न तथा परस्य चिति द्वयोाविति पक्षपातौ। यस्तत्त्ववेदी च्युतपक्षपातस्तस्यास्ति नित्यं खलु चिच्चिदेव।। २६-७१।।
[रोला] एक कहे ना मूढ़ दूसरा कहे मूढ़ है, किन्तु यह तो उभय नयों का पक्षपात है । पक्षपात से रहित तत्व वेदी जो जन हैं, उनको तो यह जीव सदा चैतन्यरूप है।७१।।
अर्थ:- जीव मूढ़ [ मोही] है ऐसा एक नयका पक्ष है और जीव मूढ़ [ मोही] नहीं है ऐसा दूसरे नयका पक्ष है; इस प्रकार चित्स्वरूप जीव के सम्बन्धमें दो नयोंके दो पक्षपात है। जो तत्त्ववेत्ता पक्षपातरहित है उसे निरन्तर चित्स्वरूप जीव चित्स्वरूप ही है [अर्थात् उसे चित्स्वरूप जीव जैसा है वैसा ही निरन्तर अनुभवमें आता है ] ।। २६-७१।।
* आगे २६ से ४४ तकके श्लोक २५ वाँ श्लोकके साथ मिलते जुलते हैं। इसलिए पं० श्री राजमलजीने उन श्लोकोंका "खंडान्वय सहित अर्थ नहीं किया है। मूल श्लोक, उनका अर्थ और भावार्थ हिन्दी समयसारमें से यहाँ दिया गया है।
Please inform us of any errors on rajesh@ AtmaDharma.com