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कहान जैन शास्त्रमाला]
कर्ता-कर्म-अधिकार
[उपेन्द्रवजा] य एव मुक्त्वा नयपक्षपातं स्वरूपगुप्ता निवसन्ति नित्यम्। विकल्पजालच्युतशान्तचित्तास्त एव साक्षादमृतं पिबन्ति।। २४-६९।।
[सोरठा] जो निवसे निज माहि छोड़ सभी नय पक्ष को । करे सुधारस पान निर्विकल्प चित शान्त हो।।६९ ।।
खंडान्वय सहित अर्थ:- "ये एव नित्यम् स्वरूपगुप्ता: निवसन्ति ते एव साक्षात् अमृतं पिबन्ति'' [ये एव ] जो कोई जीव [ नित्यम् ] निरन्तर [ स्वरूप] शुद्ध चैतन्यमात्र वस्तुमें [ गुप्ताः] तन्मय हुए हैं [ निवसन्ति ] तिष्ठते हैं [ते एव] वे ही जीव [ साक्षात् अमृतं] अतीन्द्रिय सुखका [पिबन्ति] आस्वाद करते हैं। क्या करके ? "नयपक्षपातं मुक्त्वा '' [नय] द्रव्य-पर्यायरूप विकल्पबुद्धि , उसके [ पक्षपातं] एक पक्षरूप अंगीकार उसको [ मुक्त्वा ] छोड़कर। कैसे हैं वे जीव ? "विकल्पजालच्युतशान्तचित्ताः'' [विकल्पजाल ] एक सत्त्वका अनेकरूप विचार, उससे [च्युत] रहित हुआ है [ शान्तचित्ताः] निर्विकल्प समाधान मन जिनका, ऐसे हैं। भावार्थ इस प्रकार है -एक सत्त्वरूप वस्तु है उसको, द्रव्य-गुण-पर्यायरूप, उत्पाद-व्यय-ध्रौव्यरूप विचार करनेपर विकल्प होता है, उस विकल्पके होनेपर मन आकुल होता है, आकुलता दुःख है, इसलिए वस्तुमात्रके अनुभवनेपर विकल्प मिटता है, विकल्पके मिटनेपर आकुलता मिटती है, आकुलताके मिटनेपर दुःख मिटता है, इससे अनुभवशीली जीव परम सुखी है।। २४-६९ । ।
[उपजाति] एकस्य बद्धो न तथा परस्य चिति द्वयोङविति पक्षपातौ। यस्तत्त्ववेदी च्युतपक्षपातस्तस्यास्ति नित्यं खलु चिच्चिदेव ।। २५-७०।।
[रोला] एक कहे ना बंधा दूसरा कहे बंधा है, किन्तु यह तो उभय नयों का पक्षपात है। पक्षपात से रहित तत्व वेदी जो जन हैं, उनको तो यह जीव सदा चैतन्यरूप है।७०।।
खंडान्वय सहित अर्थ:- "चिति द्वयोः इति द्वौ पक्षपातौ''- [ चिति] चैतन्यमात्र वस्तुमें [द्वयोः ] द्रव्यार्थिक पर्यायार्थिक दो नयोंके [इति] इस प्रकार [ द्वौ पक्षपातौ] दो ही पक्षपात हैं।
"एकस्य बद्धः तथा अपरस्य न''-[ एकस्य] अशुद्ध पर्यायमात्र ग्राहक ज्ञानका पक्ष करनेपर [बद्धः] जीवद्रव्य बँधा है।
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