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कहान जैन शास्त्रमाला]
कर्ता-कर्म-अधिकार
भावार्थ इस प्रकार है कि कहनेमें ऐसा आता है कि ज्ञानावरणादि कर्मका कर्ता जीव है, सो कहना भी झूठा है।। १७-६२।।
[वसंततिलका] जीवः करोति यदि पुद्गलकर्म नैव कस्तर्हि तत्कुरुत इत्यभिशङ्कयैव। एतर्हि तीव्ररयमोहनिवर्हणाय सङ्कीर्त्यते शृणुत पुद्गलकर्मकर्तृ।। १८-६३।।
[दोहा] यदि पुद्गलमय कर्म को करे न चेतनराय । कौन करे- अब यह कहें सुनो भरम नश जाय।।६३।।
खंडान्वय सहित अर्थ:- "पुद्गलकर्मकर्तृ संकीर्त्यते'' [पुद्गलकर्म ] द्रव्यपिंडरूप आठ कर्मका [ कर्तृ] कर्ता [ सङ्कीर्त्यते] जैसा है वैसा कहते है। "शृणुत'' सावधान होकर तुम सुनो। प्रयोजन कहते है-'"एतर्हि तीव्ररयमोहनिवर्हणाय'' [ एतर्हि ] इस समय [तीव्ररय] दुर्निवार उदय है जिसका ऐसा जो [ मोह] विपरीत ज्ञान उसको [ निवर्हणाय] मूलसे दूर करनेके निमित्त। विपरीतपना कैसा करके जाना जाता है। "इति अभिशङ्कया एव'' [इति] जैसी करते हैं[ अभिशङ्कया] आशंका उसके द्वारा [ एव] ही। वह आशंका कैसी है ? " यदि जीवः एव पुद्गलकर्म न करोति तर्हि कः तत् कुरुते' [ यदि] जो [ जीव: एव] चेतनद्रव्य [ पुद्गलकर्म]पिण्डरूप आठ कर्मको [ न करोति ] नहीं करता है [ तर्हि ] तो [ कः तत् कुरुते] उसे कौन करता है ?
भावार्थ इस प्रकार है - जो जीवके करनेपर ज्ञानावरणादि कर्म होता है ऐसी भ्रान्ति उपजती है, उसके प्रति उत्तर इस प्रकार है कि पुद्गलद्रव्य परिणामी है, स्वयं सहज ही कर्मरूप परिणमता है।। १८-६३।।
[उपजाति] स्थितेत्यविघ्ना खलु पुद्गलस्य स्वभावभूता परिणामशक्तिः। तस्यां स्थितायां स करोति भावं यमात्मनस्तस्य स एव कर्ता।। १९-६४।।
[हरिगीत] सब पुद्गलों में है स्वभाविक परिणमन की शक्तिजब। और उनके परिणमन में है न कोई विध्न जब ।। क्यों न हो तब स्वयं कर्ता स्वयं के परिणमन का । अर सहज ही यह नियम जानो वस्तु के परिणमन का।।६४।।
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