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समयसार-कलश
[भगवान् श्री कुन्द-कुन्द
[मालिनी] परपरिणतिमुज्झत् खण्डयन्दवादानिदमुदितमखण्डं ज्ञानमुच्चण्डमुच्चैः। ननु कथमवकाश: कर्तृकर्मप्रवृत्तेरिह भवति कथं वा पौद्गलः कर्मबन्धः ।। २-४७।।
[हरिगीत] परपरिणति को छोड़ती अर तोड़ती सब भेदभ्रम । यह अखण्ड प्रचण्ड प्रगटित हुई पावन ज्योति तब।। अज्ञानमय इस प्रवृत्ति को है कहाँ अवकाश तब। अर किस तरह हो कर्म बन्धन जगी जगमग ज्योति तब।।४७।।
खंडान्वय सहित अर्थ:- "इदम् ज्ञानम् उदितम्'' [इदम्] विद्यमान है ऐसी [ ज्ञानम्] चिद्रूपशक्ति [ उदितम् ] प्रगट हुई। भावार्थ इस प्रकार है कि जीवद्रव्य ज्ञानशक्तिरूप तो विद्यमान ही है, परंतु काललब्धि पाकर अपने स्वरूपका अनुभवशील हुआ। कैसा होता हुआ ? “परपरिणतिम् उज्झत्'' [ परपरिणतिम्] जीव-कर्मकी एकत्वबुद्धिको [ उज्झत्] छोड़ता हुआ। और क्या करता हुआ ? "भेदवादान् खण्डयत्'' [भेदवादान्] उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य अथवा द्रव्य-गुण-पर्याय अथवा आत्माको ज्ञानगुण के द्वारा अनुभवता हैतइत्यादि अनेक विकल्पोंको [ खण्डयत्] मूलसे उखाड़ता हुआ। और कैसा है ? ''अखण्डं'' पूर्ण है। और कैसा है ? ' ' उच्चैः उच्चण्डम्'' [ उच्चैः ] अतिशयरूप [उच्चण्डम् ] प्रचंड है अर्थात् कोई वर्जनशील नहीं है। "ननु इह कर्तृकर्मप्रवृत्तेः कथम् अवकाशः '' [ ननु] अहो शिष्य! [इह ] यहाँ शुद्ध ज्ञानके प्रगट होनेपर [ कर्तृकर्मप्रवृत्तेः ] जीव कर्ता अने ज्ञानावरणादि पुद्गलपिण्ड कर्म ऐसे विपरीतरूपसे बुद्धिका व्यवहार उसका [कथम् अवकाशः ] कौन अवसर?
भावार्थ इस प्रकार है कि जैसे सूर्यका प्रकाश होनेपर अंधकारको अवसर नहीं वैसे शुद्धस्वरूप अनुभव होनेपर विपरीतरूप मिथ्यात्वबुद्धिका प्रवेश नहीं। यहाँ पर कोई प्रश्न करता है कि शुद्ध ज्ञानका अनुभव होनेपर विपरीत बुद्धि- मात्र मिटती है कि कर्मबंध मिटता है ? उत्तर इस प्रकार है कि विपरीत बुद्धि मिटती है, कर्मबंध भी मिटता है। "इह पौद्गलः कर्मबन्धः वा कथं भवति'' [इह ] विपरीत बुद्धिके मिटनेपर [ पौद्गलः ] पुद्गलसंबंधी है जो द्रव्यपिण्डरूप [कर्मबन्धः] ज्ञानावरणादि कर्मोका आगमन [वा कथं भवति] वह भी कैसे हो सकता है ?। २-४७।।
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