________________
Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates
समयसार-कलश
[भगवान् श्री कुन्द-कुन्द
[मंदाक्रांता] इत्थं ज्ञानक्रकचकलनापाटनं नाटयित्वा जीवाजीवौ स्फुटविघटनं नैव यावत्प्रयातः। विश्वं व्याप्य प्रसभविकसव्यक्तचिन्मात्रशक्त्या ज्ञातृद्रव्यं स्वयमतिरसात्तावदुच्चैश्चकाशे।। १३-४५।।
[हरिगीत] जब इस तरह धारा प्रवाही ज्ञान का आरा चला। तब जीव और अजीव में अतिविकट विघटन हो चला।। अब जब तलक हों भिन्न जीव-अजीव उसके पूर्वही। यह ज्ञान का घनपिण्ड निज ज्ञायक प्रकाशित हो उठा।। ४५।।
खंडान्वय सहित अर्थ:- "ज्ञातृद्रव्यं तावत् स्वयं अतिरसात् उच्चैः चकाशे'' [ज्ञातृद्रव्यं] चेतनवस्तु [ तावत्] वर्तमान कालमें [ स्वयं अपने आप [अतिरसात् ] अत्यन्त अपने स्वादको लिए हुए [ उच्चैः] सब प्रकारसे [चकाशे] प्रगट हुआ। क्या करके ? “विश्वं व्याप्य'' [विश्वं] समस्त ज्ञेयको [व्याप्य] प्रत्यक्षरूपसे प्रतिबिंबित कर। तीन लोकको किसके द्वारा जानता है ? "प्रसभविकसव्यक्तचिन्मात्रशक्त्या'' [प्रसभ ] बलात्कारसे [विकसत्] प्रकाशमान है [ व्यक्त] प्रगटपने ऐसा है जो [ चिन्मात्रशक्त्या] ज्ञानगुणस्वभाव उसके द्वारा जाना है त्रैलोक्य जिसने ऐसा है। और क्या कर ? "इत्थं ज्ञानक्रकचकलनात् पाटनं नाटयित्वा'' [इत्थं] पूर्वोक्त विधिसे [ज्ञान] भेदबुद्धिरूपी [क्रकच] करोंतके [ कलनात् ] बार-बार अभ्याससे [ पाटनं] जीव-अजीवकी भिन्नरूप दो फार [ विभाग] [नाटयित्वा] करके। कोई प्रश्न करता है कि जीव-अजीवकी दो फार तो ज्ञानरूपी करोंतके द्वारा किये, उसके पहले वे किस रूप थे ? उत्तर-"यावत् जीवाजीवौ स्फुटविघटनं न एव प्रयातः'' [ यावत् ] अनंत कालसे लेकर [ जीवाजीवौ] जीव और कर्मकी एकपिंडरूप पर्याय [ स्फुटविघटनं] प्रगटरूपसे भिन्न-भिन्न [न एव प्रयातः] नहीं हुई है।
भावार्थ इस प्रकार है कि जिस प्रकार सुवर्ण और पाषाण मिले हुए चले आरहे हैं, और भिन्न-भिन्नरूप हैं। तथापि अग्निका संयोग बिना प्रगटरूपसे भिन्न होते नहीं, अग्निका संयोग जब ही पाते हैं तभी तत्काल भिन्न-भिन्न होते हैं। उसी प्रकार जीव और कर्मका संयोग अनादिसे चला आरहा है और जीव, कर्म भिन्न-भिन्न हैं। तथापि शुद्धस्वरूप-अनुभव बिना प्रगटरूपसे भिन्न-भिन्न होते नहीं; जिस काल शुद्धस्वरूप-अनुभव होता है उस काल भिन्न-भिन्न होते है।। १३-४५।।
Please inform us of any errors on rajesh@ AtmaDharma.com